समीक्षक- आशा पाण्डेय ओझा ‘आशा’
समीक्ष्य पुस्तक- जी भर बतियाने के बाद
विधा- ग़ज़ल
रचनाकार- के० पी० अनमोल
प्रकाशक- श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली
संस्करण- प्रथम, 2022
मूल्य- 150 रूपये
इन दिनों बहुत सारी पुस्तकें मिलीं। उनमें कुछ लघुकथाओं की हैं, कुछ ग़ज़ल संग्रह हैं। कुछ कविताओं की हैं व कुछ निबंध की। कुछ कहानियों की भी। मैं अपनी व्यस्तताओं के चलते इन पुस्तकों को पढ़ नहीं पायी थी। कल थोड़ी फ़ारिग हुई तो पुस्तकों को टेबल से उठाकर अपने सिरहाने ले आयी और उन्हें पढ़ना शुरू किया। इनको पढ़ने का क्रम मैंने वही रखा, जिस क्रम में ये मेरे पास आयीं। उसमें सबसे ऊपर के क्रम से चलते हैं।
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यह है ग़ज़ल संग्रह ‘जी भर बतियाने के बाद’, जिसके लेखक के० पी० अनमोल हैं। इस ग़ज़ल संग्रह को रात दो बार पढा और तसल्ली से पढ़ा। दो बार इसलिए कि पहली बार लेखक को अपने छोटे भाई की तरह पढा, अचंभित हुई उसके लेखन को लेकर कि छोटे से अनमोल में विचारों की इतनी गहराई है….वाह्ह! फिर लगा नहीं, इसको एक आलोचक की तरह पढ़ना होगा अगर मैं अपने अनुज का भला चाहती हूँ पर दुबारा इस संग्रह को पढ़कर एक तसल्ली हुई, एक विश्वास हुआ कि वास्तव में इन दिनों हिन्दी ग़ज़ल सफलता के शिखर की ओर अग्रसर हो रही है। हिन्दी ग़ज़ल की दुनिया में बेहतरीन कहने वाले जो नए युवा ग़ज़लकार अपनी पैठ बना रहे हैं, अपने पाँव गहराई से जमा रहे हैं, के० पी० अनमोल उन्हीं युवा ग़ज़लकारों में से एक हैं।
अनमोल को मैं लगभग 12 सालों से जानती हूँ। उनके शुरू के लेखन से भी वाकिफ़ हूँ। उनको 12 सालों से निरंतर पढ़ रही हूँ। अच्छा लिखते हैं और यह लेखन निरंतर निखरेगा यह तसल्ली तो थी पर इतनी जल्दी लेखन इस मुक़ाम तक पँहुच जाएगा, यह नहीं ज्ञात था। ‘जी भर बतियाने के बाद’ इस शीर्षक से ही अनुमान लगाया जा सकता है कि जी भर बतियाने के बाद ही यह ग़ज़लें लिखी गयी हैं। वह जी भर बतियाना किसी से हो सकता है, अपने घर के गमलों में उगे पौधों से, अपने खिड़की-दरवाज़ों से, अपने दोस्तों से, अपने परिजनों से, अपनी माँ से, अपने परिचितों से, अपने पड़ोसियों से, अपने आस-पास के वातावरण से, हवा से, बरसात से, धूप से, नदी, झरनों, तालाबों, पक्षियों, पेड़-पौधों से, बिटिया से और ख़ुद अपने-आप से, लेखक की तमाम ग़ज़लें इस बात की गवाही दे रहीं हैं कि लेखक अपने समय के हर पल से बतियाता है। बतियाने का मतलब यह नहीं कि जुबान से शब्दों में बात की जाए। बतियाने के लिए मन व आँखों का खुला रहना ज़रूरी है, ज़रूरी है पल-प्रतिपल को मापने व भाँपने का एक खुला नज़रिया। एक अच्छे लेखक के लिए व उसके लेखन की नवीनता के लिए इस तरह का बतियाना बेहद ज़रूरी है।
इस संग्रह में कुल अस्सी ग़ज़लें व कुछ आज़ाद शेर हैं, हर ग़ज़ल एक नयी कहन की तस्दीक़ करती हुई नज़र आती है। कहीं रिश्तों की कसमसाहट है तो कहीं रिश्तों की परवाह व प्यार भी, कहीं संवेदनाओं की गहन अनुभति है तो कहीं समय की नब्ज़ को टँटोलता मन का चिकित्सक। अपनी क़लम के चरख़े पर अपने समय के कपास को बहुत बारीक़ी से काता है अनमोल ने और उससे जो पैरहन तैयार हुआ है इस ग़ज़ल संग्रह के रूप में, वो आने वाली पीढ़ियों के लिए बानगी के तौर पर एक सुंदर तोहफ़ा है। इस संग्रह ने अपने भीतर समसमायिक गज़लों के साथ कुछ प्रयोगात्मक ग़ज़लें भी समेटी हैं वो बहुत आकर्षक लगीं। नयी कहन, नया तेवर, नई ख़ुशबू और बेशक़ पूरानी ज़मीन में नई फ़सल इस संग्रह को संग्रहणीय बनाता है। बानगी के तौर पर कुछ शेर देखिए-
संसार अजब शय है अजब शय है अजब शय
हाँ यार, अजब शय है अजब शय है अजब शय
इतनी लम्बी रदीफ़ की यह ग़ज़ल चमत्कार पैदा करती है, विस्मृत करती है।
इसके साथ ही इस संग्रह की ग़ज़ल 76 “भीतर-भीतर एक अगन है, बाहर पानी-पानी है/ बाहर पानी-पानी है यह कैसी प्रेम कहानी है” बहुत ही अनूठी ग़ज़ल बन पड़ी है। जब संग्रह पढ़ते हुए आगे बढ़ते हैं तो प्रयोगात्मक ग़ज़ल में ही एक चमत्कार से और रूबरू होते हैं-
ख़ुशबू ख़ुशबू ख़ुशबू ख़ुशबू ख़ुशबू ख़ुशबू ख़ुशबू
हाँ तू हाँ तू हाँ तू हाँ तू हाँ तू हाँ तू हाँ तू
यक़ीनन एक अलग ही ख़ुशबू की ग़ज़ल बन पड़ी है, जैसे कच्ची मिट्टी की बरसाती ख़ुशबू।
ये तो कुछ प्रयोगात्मक ग़ज़लें, जिन्होंने मुझे बाँधा और ऐसा बाँधा कि लगा आस-पास कोई इत्र की शीशी खुली छूट गयी। साथ ही इस संग्रह की कई और ग़ज़लें लेखक के गहरे विचारों व सधे भावों के हस्ताक्षर के प्रमाण हैं। मसलन-
दिल की शाखों से कभी लब पे उतारे न गये
यूँ पुकारे गये हम जैसे पुकारे न गये
एक आह्ह, एक कराह, एक उदासी समेटे इस ग़ज़ल में नमी-सी नज़र आती है और नमी होनी भी चाहिए। बिना नमी के कविताई व शेरियत के अहसास मर जाते हैं। एक शेर और देखें-
घुसा है जिंदगी में इस तरह मुआ गूगल
कि हो गया है ज़रूरत से भी बड़ा गूगल
आज हम गूगल के इतने आदी हो चुके हैं कि हम ख़ुद से कुछ भी याद नहीं रखना चाहते या याद रखने की कोशिश ही नहीं करते क्योंकि इस गूगल की सुविधाओं ने हमें बहुत ही छिछला बना दिया है। कोई चीज़ अब भीतर तक बहुत देर थाम कर रखने की हमारी क्षमता क्षीण हो गयी है। अब हम हर बात में गूगल सर्च करने लगे हैं। अधिक सुविधाएँ आदमी को आलसी बना देती हैं।
एक छोटी बहर की ग़ज़ल, जो बहुत गहरी, जीवन दर्शन की बात कह जाती है मिट्टी के बहाने-
जिस्म जैसे मकान मिट्टी का
क्या भरोसा है जान मिट्टी का
किसको होता है मोह मिट्टी से
कौन रखता है ध्यान मिट्टी का
इन तमाम ग़ज़लों के साथ-साथ इस संग्रह की बहुत सारी ग़ज़लें हैं, जो पाठकों द्वारा बहुत-बहुत पसंद की जाएँगी, लेखकों द्वारा सराही जाएँगी, समीक्षकों द्वारा भी फिर-फिर उद्धृत की जाएँगी। बेहतरीन ग़ज़ल संग्रह के लिए के० पी० अनमोल जी को बहुत-बहुत बधाई व शुभकामनाएँ।
साथ ही इस संग्रह के प्रकाशक राहुल शिवाय जी को बहुत सुंदर प्रकाशन, मुद्रण, टंकण के लिए साधुवाद। कुल मिलाकर एक बेहतरीन संग्रह बन पड़ा है ‘जी भर बतियाने के बाद’।