ऋचा गौतम की कविताएं

ऋचा गौतम
पटना, बिहार

सत्य

सत्य लिखते हुए कई बार हम झुठलाए जायेंगे!
कई बार प्रपंच कर गिराए जायेंगे!
यह भी हो सकता हम मार दिए जाएं…
लेकिन जब आदत ही हो सच बोलने की
तब कहां डर पाएंगे…

झूठ का साथ दिए तब जरुर मर जाएंगे।
फिर ना झूठ साथ देगा, न सच शाबाशी देगा
किसे पता फिर हम किधर जायेंगे!

रोटी रोजी के कतार में खड़े लोग पहले से हीं कातर है!
ये पहले से ही बंगला गाड़ी की दौर से बाहर है।
फिर उनके हाथ में थमा कर कोई झंडा
कुछ लोग अपार संभावनाओं से भर जायेंगे

हम वहां मौन होकर सकारात्मकता का अभियान करेगें
अपने किए का अभिमान करेगें और दुश्चिंताओं से भरे भरे घर आयेंगे।
याद रखिए

ये जो हमारी बोली है, यह बंदूक में भरी हुई गोली है
उल्टा चलाएंगे तो खुद भी मर जाएंगे।

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आजादी

हमारे आजाद देश में कुछ लोग
इतने आजाद है की उन्हें किसी का खौफ नहीं।

वो जात के नाम पर किसी प्यासे बच्चे का गला रेत सकते है।
वो शौच गई बच्ची को अपने हवस का शिकार बना सकते है।

वो चाहे तो किसी के ऊपर अपनी गाड़ी चला दे, चाहे तो
गाय के नाम पर, झंडे के नाम पर, धर्म के नाम पर
सरे राह, सरे आम चाकू चला दे।

क्योंकि वो आजाद है, इतने आजाद की कानून उनके डर से अपनी आंख पर पट्टी बांधे हुए है।

समाज धृतराष्ट्र है, अपने स्वार्थ से आगे उसे कुछ नहीं दिखता।

आंख होते हुए भी लोगो ने अन्याय देखना छोड़ दिया है
अन्याय पर बोलना छोड़ दिया है।
क्योंकि सबको आज़ादी का अमृत चाहिए, अन्याय पर मूंह खोलना छोड़ दिया है।

पहले लोग गंगा नहाकर पाप धोते थे, अब तिरंगा उठा कर धो लेते है।
नाम का सरनेम तय करेगा आप देशभक्त हो या देशद्रोही।
रोटी, रोजगार मत मांगो, यह देश तुम्हारा नही हुआ था अबतक?
आलाकमान ने कहा है तो तिरंगा लहरा दो!

यह क्या कम आजादी है कि यहां

सभी लोग आज़ाद है, अपनी मानसिक गुलामी के लिए।

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स्त्री

वो अब नहीं चलाएंगी सिलबट्टा
क्योंकि तुमने सिलबट्टे पर उनके
सारे सपनों की चटनी बना डाली।
अगर तुम्हें चाहिए सिलबट्टे वाली चटनी तो
पहले अपने हाथों से धनिया उगा कर लाओ
तुम पहले चीजों में रंग भरना सिखो
वो फिर उनमें स्वाद भी भर देंगी।

स्त्री के थुल थुल शरीर से तुम्हें जो
उसकी आराम तलबी दिखाई देती है तो
एक बार अपने बच्चों की गिनती और
अबॉर्शन की फाइल भी चेक कर लेना
इतिहास का तो पता नहीं, डॉक्टर की पर्चियां
जरुर बता देगी, कैसे उसके देह को डाली समझ
अपने वंश के फूल और मनचाही वासना उगाई बुझाई है तुमने।

स्त्रियों पर जो चुटकुलों और हास्यों की दुकान खोल रखी है तुमने तो बाजार चलाने के लिए पहले जाओ
और एक चक्कर न्यायालय का लगा कर आओ
स्त्री के दुःख पर नमक डाल लिखी कविताओं पर
पुरस्कार मत बांटों।
और ना स्त्री योजनाओं और संस्थाओं के नाम पर
सरकार बनाओ।

सच बस यह है की नाचती, हंसती, अकेली घूमती स्त्री के पीछे वो स्वयं ही खड़ी है।
अब उसे फर्क नहीं पड़ता की तुम अपनी गंदे दिमाग से क्या दुर्गंध मचा रहे हो।

तुम आज भी लाखों की तादाद में गालियां रच रहे हो
बहुरूपिए बन स्त्री को बार-बार ठग रहे हो।
तुमने ना अब तक प्रेम करना ही सीखा, ना सही से निभाना ही आया
बिना रीढ़ की अकड़ है तुम्हारी, उसे भी तुमने
हम स्त्रियों पर ही है सदियों से टिकाया।