उलझकर रह गई जो खुद की पहचान को
दोस्तों! वह एक पहेली हूं मैं
कहने को तमाम भीड़ है यूं तो आसपास मेरे
फिर भी अकेली हूं मैं
कहने को तो यूं सब साथ हैं पर
न कोई हमदर्द मेरा न कोई हमराह है,
अंतर में दबे पांव उठता आता है जो दर्द
उस दर्द की खुद ही सहेली हूं मैं
नहीं पता कि शूल की संगत में रहकर
क्यों मैंने अपनी गंध का प्रतिदान किया
बेरंग सी उन शूलधार झाड़ियों के संग
लिपटी है जो वह चमेली हूं मैं
मुझमें बसता था वो जो मेरा साया
जा चुका जो छोड़कर यूं मुझको
बेरंग हो गई दीवारें जिसकी
बनकर खंडहर सी रह गई जो, वह हवेली हूं मैं
यूं तो हर किसी ने समझाई मुझे
हर रिश्ते में छिपी वो बारीकियां
कहने को एक शिक्षिका थी, अनुभवी थी,
पर आज इस ज्ञान में नवेली हूं मैं
सीमा शर्मा ‘तमन्ना’
नोएडा, उत्तर प्रदेश