शितिकंठ के आशीष से, मन शुभ्र दर्पण हो गया।
संकटहरण से मन मुदित, स्वर्गिक सुखद क्षण हो गया।।
वृश्चिक विराजें कर्ण में नरमुंड की गलमाल है।
काली जटाएँ हैं घनी, शोभित कलाधर-भाल है
कर में सजे डमरू त्रिशिख, शव-भस्म काया पर मली।
गण भूत भैरव दैत्य की, मिल साथ में सेना चली।
प्रमुदित धतूरा झूमकर, शिव पर समर्पण हो गया।।
गंगा विराजे शीश पर, शुचि धार धवला नित बहे।
लिपटे गले में व्याल हैं, संस्पर्श पावन पा रहे।
करुणाकरण त्रयलोचनम, भव सामप्रिय मृड विघ्नहर ।
अज, नीललोहित सूक्ष्मतनु, मन ध्यानमय कैलाश पर।
तारक-कृपा की दृष्टि से, शुभ तीर्थ कण-कण हो गया।।
त्रिपुरांत से सारा जगत, आकाश है पाताल है।
दिन-रात, ऋतुएँ चर-अचर, बलवान गतिमय काल है।
करते सदा सर्वज्ञ की, शिवभक्त जो आराधना।
भोले जटाधर हर करें, पूरन हृदय की कामना।
शिव की कृपा, कारुण्य से, भव-भय-निवारण हो गया।।
स्नेहलता नीर