वो बचपन के दिन भी क्या सुहाने थे
दुनिया के हर ग़म से हम सब अनजाने थे
वो रूठना और पल में मान जाना
अपनी मधुर मुस्कानों से औरों को हंसाना
इसमें न किसी से कोई शिकायत न शिकवा होता था
न किसी की कही कड़वी बातों से किसी का दिल रोता था
वो मिलकर सबका टोलियों में खेलना- खिलाना
बनाकर मिट्टी को आटा वो छोटी छोटी रोटियां बनाना
दादी नानी का वो कहानियां सुनाना
परियों की दुनिया में हमें ले जाना
सुनते -सुनते कब नींद आ जाती थी
सारी थकान जाने कहां भाग जाती थी
ऊंच-नीच क्या होती है? इसका किसी को ज्ञान नहीं था
सब मिलकर खेला खाया करते थे,
किसी को भी अभिमान नहीं था
रूठकर मान जाना और
फिर से अपनी जिद मनवाना भी
क्या आनंद दिखाते थे
अपने माता और पिता के जिगर के टुकड़े कहलाते थे
एक छींक पर न जाने कितने
नीम हकीमों को हमें दिखलाते थे
हमारी एक खुशी की खातिर वो
अपने न जाने कितने
ज़ख्म छुपाते थे
वो बचपन की कहानियां,
वो सहेलियां वो दिन बहुत याद आते हैं
पर यह भी सच है दोस्तों!
बीते हुए दिन वापस कहां आते हैं ?
वो बचपन की नादानियां,
वो सारी शैतानियां,काश! कोई
लौटा दे फिर से वो निशानियां
सीमा शर्मा ‘तमन्ना’
नोएडा, उत्तर प्रदेश