वंदना पराशर
अगरबत्ती की गंध
फैल गई है हवा में
फैल गई है उसकी ख़ुशबू
दूर तक
मैंने भी
उसने भी
सबने महसूस किया
उसकी सुगंध
जो घुल गई है गहराई में
न रूप, न आकार
फिर क्यों रच-बस गई है
इसकी ख़ुशबू अंतर्मन में
मैं भी बन जाना चाहती हूँ
अगरबत्ती की तरह सुगंधित
फैल जाना चाहती हूँ
सुगंध बनकर सबके अंतर्मन में