डॉ निशा अग्रवाल
जयपुर, राजस्थान
कुछ यादें अर्पण करती हूँ, कुछ दर्द विसर्जन करती हूँ
देख हक़ीक़त दुनिया की, अरमानों का तर्पण करती हूँ
अवसाद की गठरी, अपमान के आँसू, जगह-जगह मैं सहती हूँ
बूढ़े तन की भीगी आँखें, मन बोझिल लिए तड़पती हूँ
विदेश गए बेटे की पल-पल, बाट निहारे फिरती हूँ
मेरे सुत को सब मेरा, नित नव समर्पण करती हूँ
भूल गया सुत माँ-बाप को, फिर भी सुत मिलन को तरसती हूँ
बिलख रहीं जीते-जी अँखियाँ, जीवन भर अतृप्त रहती हूँ
सोच-सोच भाव अर्पण का मैं, मिट्टी में एक दिन मिल जाती हूँ
मरणोपरांत मैं छप्पन भोग और जल संग तर्पण पाती हूँ
पितृपक्ष के ऐसे कृत्यों को, देख देख सकुचाती हूँ
ऐसे कृत्यों से पूर्वजों की आत्मा को, तृप्त ना पाती हूँ
भारत माँ के लाल सभी तुम, एक गुज़ारिश करती हूँ
भूल ना जाना, बूढ़े तन को, यही फरियाद करती हूँ
तर्पण से पहले बेटा तुम अपना, मन अर्पण कर देना
हो सके तो जीते जी ही, मेरा श्राद्ध कर्म कर देना