सहज संप्रेषित हैं ख़ुरशीद खैराड़ी की संवेदनशील ग़ज़लें: डॉ रमाकांत शर्मा

समीक्षक- डॉ रमाकांत शर्मा
ग़ज़ल संग्रह- पदचाप तुम्हारी यादों की
लेखक- खुरशीद खैराड़ी
राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर
मूल्य- ₹150

‘पदचाप तुम्हारी यादों की’ ग़ज़ल संग्रह के साथ शाइरी की दुनिया में प्रवेश करने वाले शाइर खुरशीद खैराड़ी आज एक जाना पहचाना और चर्चित नाम है। सीधे सरल शब्दों में व्यापक जीवनानुभवों को कैसे व्यक्त किया जा सकता है, यह हुनर शाइर खैराड़ी के पास उपलब्ध है। मिर्ज़ा ग़ालिब का यह शेर यहां कितना मौजूं है:

इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा
लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं।

बग़ैर किसी बड़बोलेपन और चौंचलेबाज़ी के शाइर खैराड़ी अपनी बात को ख़ूबसूरत ढंग से कुछ इस तरह पेश कर देते हैं कि वह बात सीधे हमारे दिल में उतर कर दिमाग़ को प्रभावित करती है। शाइर खुरशीद खैराड़ी सच्चे अर्थ में शब्द के साधक हैं। उर्दू और हिंदी शब्दावली पर इनकी गहरी पकड़ है। इन्हीं दो भाषाओं के मेल से खुरशीद खैराड़ी की गंगा-जमनी ग़ज़लें रूप ग्रहण करती हैं।

एक सच्चे साधक की तरह इस शाइर ने उर्दू और हिंदी के छंदशास्त्र पर कठोर मेहनत कर पकड़ हासिल की है। सादगी का सौंदर्य इनकी ग़ज़लों की बड़ी खूबी है। सिर्फ ध्वनि-अंतर्ध्वनि और लाक्षणिक गुणों के आधार पर खैराड़ी जी ने बेहद खूबसूरत अश’आर अता किये हैं।

इनके व्यक्तित्व की तमाम ख़ूबियाँ सहज ही इनकी ग़ज़लों का हुस्न बन गई हैं। ग़म को ग़ज़लों में गाने वाले शाइर खैराड़ी कहते हैं:

चोट कलेजे की होती है जितनी गहरी
लहजा ग़ज़ल का उतना ही गहरा होता है
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गालों तक रिस आया ग़म का एक रेला
फूट गया फिर उर का छाला दिखता है
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अच्छी शाइरी हँसी-ठट्ठे के माहौल में नहीं, बल्कि दर्द, ग़म और करुणा की कोख से पैदा होती है। उसी दर्दोग़म से फूट कर अश’आर बाहर आते हैं और जीवन जीने का सलीका दे जाते हैं-

जिस दिन छलनी मन को सीना आ जायेगा
सच कहता हूँ उस दिन जीना आ जायेगा

हर आँसू को गीत बनाकर गाना ग़म को
खुश रहने का सही क़रीना आ जायेगा
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शाइर खुरशीद खैराड़ी भीलवाड़ा जनपद के खैराड़- अंचल से आते हैं। खैराड़ गाँव से शाइर को बेहद लगाव रहा है। शहर में आने के बावजूद वह कभी गाँव की गंध को भूल नहीं पाता। लेकिन विकास के नाम पर गाँव की जो दुर्दशा हुई है उसे देखा भी नहीं जाता। शाइर ने अपनी एक ग़ज़ल में कहा है:

खेतों की हरियाली गुम है
गाँवों की खुशहाली गुम है

बंद जहाँ हैं खुशियाँ सारी
उस ताले की ताली गुम है

झूलोंवाला सावन गुमसुम
अमुवे वाली डाली गुम है
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ऐसे बिगड़े हुए हालात के बावजूद शाइर को अपना गाँव शिवाला जैसा लगता है:

मुझको मेरा गाँव निराला लगता है
पावन प्यारा एक शिवाला लगता है
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शाइर खुरशीद खैराड़ी के फ़िक़्र और फ़न की बुलंदियों को यदि देखनी हो तो इन अश’आर से गुज़र जाइये:

जिस दिल में हो प्यार किसी का पाकीज़ा
वो… मंदिर मस्जिद गिरजा हो जाता है

मनचाहा जब मीत मिले, बन कर हमदम
तब जीवन हुस्ने-मतला हो जाता है

इस शाइर के जितना ऊँचा सोच बहुत कम देखने को मिलता है। ध्यान रहे कि पवित्र प्रेम से ऊपर इस दुनिया में कुछ नहीं होता है। इस बात को ठीक से समझने की ज़रूरत है।

शाइर की चाह है कि वह फिर से बच्चा बन जाए और सावन में कागज की नाव बना कर पानी में चलाए और जन जन की पीड़ा का गान करे:

कागज की एक नाव बनाऊँ जी करता है
सावन में बच्चा बन जाऊँ जी करता है

कोठे के जीने उतरूँ गलियों में जाऊँ
औसत जन की पीड़ा गाऊँ जी करता है
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इस प्रकार शाइर खुरशीद खैराड़ी ने अपनी ग़ज़लों को किसी बज़्म का हिस्सा बनाने से पूर्व अश्कों से धो कर चमकाया है। यह विशेषता इस शाइर को अन्य शौरा से अलग करती है। मुझे पूरा विश्वास है कि शाइर खुरशीद खैराड़ी की ग़ज़ल की इस पोथी को पाठकों का भरपूर प्यार मिलेगा।