वंदना सहाय
‘गोविंदम’, B2/02, प्लॉट नंबर 2,
वृन्दावन टाउनशिप, अमरावती-जबलपुर हाईवे,
जामठा, नागपुर, महाराष्ट्र- 441122
डाॅली के पापा की कार जैसे ही उनके गाँव के घर पहुँचती, उसका सबसे पहला काम होता- झट कार से कूद कर उतरना और भागना तेजी से तारकेसर चाचा के घर की ओर।
पीछे से डाॅली की माँ उसे आवाज देती रह जाती- “अरे! कहाँ चल दी? कम से कम ठाकुरबाड़ी में आकर ठाकुर जी के दर्शन तो करती जाओ।” सात-आठ साल की डाॅली के तेज भागते पैर थोड़ी देर के लिए ठिठकते और वह वहीं से आँखें बंद कर और हाथों को जोड़ कहती- “ठाकुर जी को मैं यहीं से प्रणाम कर रहीं हूँ। बस अभी आप रही हूँ तारकेसर चाचा से मिलकर”, और वह जो भागती तो फिर जाकर उनकी अधढही हवेली में ही दम लेती।
डाॅली जिसे तारकेसर चाचा बुलाती थी, असल में उनका नाम श्री तारकेश्वर नारायण प्रसाद था। पर, गाँव के कम पढ़-लिखे लोग उनके नाम का सही ढंग से उच्चारण नहीं कर सकने के कारण ‘तारकेश्वर’ की जगह ‘तारकेसर’ का ही सुगम उच्चारण किया करते थे, जिसे सुन छोटी-सी डाॅली ने भी वैसा ही कहना शुरु कर दिया था।
ऐसे भी नाम उसके लिए कोई मायने नहीं रखता था, क्योंकि उनकी स्नेह-सरिता, जो उसके स्नेह से हमेशा लबालब भरी होती थी, उसकी एक बूँन्द भी कम होने वाली न थी।
तारकेश्वर बाबू उसके सगे चाचा न थे, पर उनका वात्सल्य डाॅली के लिए अपनों से कम न था। उसे देखते ही उन्हें अपने निःसंतान होने का दुख ऐसे गायब हो जाता था, जैसे धूप के निकलते ही ओस की बूँन्दें गायब हो जाया करती हैं। वह उसकी हर बाल-सुलभ जिद को पूरी किया करते, तभी तो उसे उनकी हवेली की चारदीवारी के अंदर प्रवेश करते ही ऐसा प्रतीत होता मानो उसके हाथ कोई अलादीन का चिराग लग गया हो जिससे वह ‘तारकेसर चाचा’ जैसे जिन्न से कोई भी काम करवा सकती है।
जब वह उनके पास पहुँचती, तो कई बार वे जाड़े के दिनों में आँगन में ही खाट डलवा धूप सेंक रहे होते। उसे देखते ही उनके कृशकाय शरीर में जान-सी आ जाती। वे उठ बैठते और स्नेहपूर्वक उसका हाथ पकड़ बोलते- “अरे, डाॅली बिटिया! तुम कब आई शहर से?”
नीरवता की चूनर ओढ़े, रंग-रोगन को तरसती, ढहती और निढाल हवेली में समय की अखंडता व्याप्त होती। घर में अपने आस-पास किसी को न पाकर वे उतावले हो पुनः बोल पड़ते- “ऐ, कहाँ हो तुम सब? जल्दी बाहर आओ।शहर से डाॅली बिटिया आयी है”, और देखते ही देखते चार लोगों की फौज जमा हो जाती। ये वही लोग थे, जिनके साथ वे रोजमर्रा की जिंदगी से जंग लड़ते थे। ये थे- चालीस-वर्षीय अविवाहित ब्राह्मण सत्यनारायण, निठल्ले ठाकुर विश्वेश्वर सिंह, बिना पेंदी का लोटा राम लाल और साक्षात् अन्नपूर्णा स्वरूप- वैैैैदेही। ये सभी समय द्वारा ठुकराए गये लोग थे और जिन घरों को वे पीछे छोड़ आए थे, उन घरों में इनकी मौजूदगी और गैरमौजूदगी सेे कोई फ़र्क नहीं पड़ने वाला था। इनके यहाँ इनका गुजारा आराम से होता था। यहाँ इन्हें किसी बात की मनाही नहीं थी। ये चाहे तो रात को दिन बना कर जियें या दिन को रात। इन सब बातों की जड़ में उनका विधुर होना अहम भूमिका निभाता था।
सत्यनारायण अपने पिता की जायदाद का बँटवारा न करवा ले, इसके लिए उसके भाई-भौजाई ने उसे नकारा और मंदबुद्धि घोषित कर उसका ब्याह न होने दिया। घर-गृहस्थी के अभाव में उसे क्षुधा-तृप्ती के लिए अपनी भौजााई पर आश्रित होना पड़ा। पर, जैसे-जैसे दिन बीतने लगे, भौजाई भोजन के साथ-साथ तीखे ताने भी परोसने लगी। फिर एक दिन ऐसा भी आया, जब वह अपनी पराजित सहनशक्ति के साथ तारकेश्वर बाबू के यहाँ पंचायत करने पहुँचा, और उसकी पंचायत कभी खत्म ही नहीं हुई। वह उन्हीं के बरामदे में चौकी डाल कर सोने लगा।
औकात के धनी होने के साथ ही ठाकुर विश्वेश्वर सिंह आकर्षक व्यक्तित्व के भी स्वामी थे- गोरा रंग, ऊँचा कद और चौड़ी छाती। लोग इनके ब्याह के बारे में तरह-तरह की अटकलें लगाया करते थे- कोई उन्हें अविवाहित कहता तो किसी का कहना था कि उनका ब्याह तो हुआ था, पर पत्नी ब्याह के तुरंत बाद ही मायके जा बसी थी। अपना अच्छा-खासा मकान होने के बावजूद इनका मन कभी अपने घर में नहीं लगता था। इनका ज्यादातर समय तारकेश्वर बाबू के बरामदे में लगी उनकी कुर्सी के बगल में लगी एक अन्य कुर्सी पर बैठ कर बीतता, जिसका एक पाया गायब था और उसकी भरपाई तीन-चार ईंटों को लगाकर कर ली जाती थी। यही वह जगह हुआ करती थी, जहाँ पर बैठ ठाकुर छंदोबद्ध प्रलापों का जाल बुना करते थे। इसी मौखिक सुख के कारण उन्होंने अपने घर से जुड़े तमाम दैहिक सुखों का परित्याग कर पर्याप्त समय के स्वामी तारकेश्वर बाबू की खस्ताहाल हवेली को अपनी शरण-स्थली बना रखी थी। निहायत निकम्मे किस्म के होने की वजह से घर-गृहस्थी चलाने के लिए जिन कुछ खास नियमों के पालन की आवश्यकता होती, उनसे वह कोसों दूर थे।
तारकेश्वर-मंडली की सबसे महत्वपूर्ण और सशक्त पात्रा थी- वैदेही, जो उनके यहाँ खाना पकाने का काम करती थीं। पूरी तरह से अनुशासनहीन गृहस्थी में एक रसोई का ही काम ऐसा था, जो कभी अभाव के कारण घिसट कर भी इसके सौजन्य से अनुशासित ढंग से चलता था। ऐसे तो इसका ब्याह भी अच्छे खाते-पीते घर में हुआ था, पर पति के गुजरते ही जब इसके पट्टीदार इसके छोटे-छोटे बेटों के खून के प्यासे हो गये तो भयाक्रांत हो उसे अपने मायके की शरण लेनी पड़ी। पर, मायके वाले भी बच्चों की बढ़ती उम्र के साथ-साथ उनकी बढ़ती भूख और जिम्मेवारियों को ज्यादा दूर तक न ढो सके, इसलिए वैदेही ने वहाँ खाना पज गकाने का काम पकड़ लिया था। वहाँ उसके साथ उसके बच्चों का भी पेट पल जाता और नियमित या अनियमित रूप से जो कुछ भी वेेेतन के नाम पर मिल जाता, उससे उसके बच्चों की पढ़ाई का खर्च निकल जाता।
तारकेश्वर बाबू के यहाँ एक राम लाल भी था, जो लगता था कि जैसे पैदा न होकर अवतरित हुआ था। एकरंगे का चोगा पहने, दीन-दुनिया से बिल्कुल बेखबर। दिन-भर खाने-पीने की चिन्ता किये बगैर वह इकतारे के साथ तरह-तरह के भजन गाता।
उसकी आवाज मोह-माया से लोगों को विरक्त कर ईश्वर से जोड़ती। तारकेश्वर बाबू को जब कभी उनका बेरंग अतीत याद आता या फिर धुंधला भविष्य त्रास देने लगता तो वे उसे भजन गाने को कहते। इससे उनके मन के अवसाद के साथ ही एकाकीपन भी दूर हो जाता। एक दिन शाम को वह भिक्षा की उम्मीद ले उनकी दहलीज पर पहुँचा था। उन्होंने उसे खाना खिलवाया और रात में सोने की जगह दी। फिर वह वहाँ से कहीं नहीं गया, अपनी धुनि वही रमाने लगा।
डाॅली जब तारकेश्वर चाचा के यहाँ जाती, तो पूरी तरह से क्षतिग्रस्त चौके की मरम्मत न हो पाने के कारण बरामदे को ही घेर कर बनाया गया चौका दिखता। मिट्टी के चूल्हे पर पीतल की हांडियाँ चढ़ी होतीं, जिनके चारो ओर मिट्टी का लेप लगा होता। उसे यह सब शहर से अलग बड़ा अच्छा लगता था। जब तक खाना पक रहा होता, तब तक चाचाजी सरसों का तेल देह पर मल, कुएँ से पानी खिंचवा धूप में रखने से ऐंठी और स्याह पड़ गयी चौकी पर बैठ कर स्नान कर लिया करते थे। नहा-धोकर, लूँगी-कुर्ते में तैयार होकर वे बोलते- “जल्दी खाना लगाओ, डाॅली बिटिया को भूख लगी होगी।”
डाॅली की आँखे हवेली का मुआयना करने लगतीं। जो हवेली बाहर से अपने विशाल होने का दंभ भरती, दरअसल अंदर से वह खस्ताहाल हो चुकी थी। पर आज भी हवेली की बैठक में पड़ी नक्काशीदार कुर्सियाँ और विदेशी झाड़-फानूस हवेली की गरिमा का बखान करते थे। हवेली के सामने ही एक छोटे- से सूखे ताल के बीच स्तंभ पर फव्वारे फेंकने वाली परी की एक संगमरमर की मूर्ति थी, जिसका एक पंख टूट गया था। डाॅली अपनी कल्पना की उड़ान से परी के टूटे पंख को जोड़ कर देखती।
वह हवेली तारकेश्वर बाबू के पिता द्वारा बनवाई गयी थी, जो एक बहुत बड़े जमींदार हुआ करते थे। क्रोध और अहंकार उनकी रगों में लहु बन दौड़ता था। वे पिता की भूमिका में कम और तानाशाह की भूमिका में ज्यादा खरे उतरते थे। तारकेश्वर बाबू ने बहुत कम उम्र में ही अपनी माता को खो दिया था। पर, उस मातृहीन पुत्र का दर्द कभी पिता की समझ में नहीं आया। पुत्र को सारे भौतिक सुख प्राप्त थे- सिवा माँ की ममता और पिता के वात्सल्य के। न कभी पिता से बेटा खुश रहा और न ही कभी बेटा पिता को खुश कर सका। और एक दिन जमींदारी चली गयी। उनके पिता यह सदमा बर्दाश्त न कर सके और स्वयं को उन्होंने गोली मार खुदकुशी कर ली।
कहते हैं- “शेर भूखा भी हो, तो घास नहीं खाता है”, वैसे ही पिता की मृत्यु के बाद उनके छोटी- मोटी नौकरी करने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता था- जमींदार के पुत्र जो ठहरे। बड़ी नौकरी मिल नहीं सकती थी, क्योंकि उसके लायक उन्होंने डिग्री नहीं हासिल की थी। घर पर आ कर पढ़ाने वाले जिस शिक्षक ने भी उन्हें सख्ती से पढ़ाने की कोशिश की, वह निकाला गया। उनके पिता की नजरों में एक अदने-से शिक्षक को ऐसा करने का कोई अधिकार न था।
जब वे कालेज की पढ़ाई करने के लिए शहर जाना चाहते थे, तो उनके पिता बोल पड़े- “लक्ष्मी क्या कम पड़ गयी, जो शहर से सरस्वती लाने चल दिए”। पिता की बची हुई अचल संपत्ति की वजह से उन्हें कभी खाने-पीने की दिक्कत नहीं हुई, पर नियमित आय के अभाव में ऊपर के ढेर सारे खर्चो को पूरा करने में दिक्कत होती। फिर भी खेतों से आए अनाज को बेचवा, वे अपने साथ रह रहे लोगों की जरूरतों को इमानदारी से पूरी करने की कोशिश करते।
खाना लगने के क्रम में वे निर्देश देने लगते- ” डाॅली के लिए खाना मेज-कुर्सी पर ही लगाना। खाने के लिए चम्मच देना और दाल में पूरा घी डालना।” इन सब एक दिन के नये नखरों का पालन करते-करते सबके साथ ही मिट्ठू तोते के भी खाने का अंतराल लंबा हो जाता और वह क्षुधातुर हो ‘राम-राम’ बोल उठता। ऐसे में कोई भी घर से आकर आँगन में लगे मिर्ची के पौधे से एक मिर्ची तोड़कर उसे पकड़ा देता। तोते की लाल चोंच में हरी मिर्च उसी तरह शोभायमान हो उठती, जैसे श्री कृष्ण के होठों से लग कर बंसी।
आखिर में खाना लग जाता और माँ के सामने खाने में ढेरों नखरे करने वाली डाॅली चाचाजी के साथ तुरंत खा लेती। खाना खाते ही चाचाजी की आँखों पर नींद दस्तक देने लगती। उनकी बोझिल पलकें किसी रंगमंच के परदे की तरह उनकी आँखों पर गिर कर ठहर जातीं। उन्हें सोता देख डाॅली को अपनी मटरगश्ती का सपना बिखरता हुआ दिखाई देता। वह कह उठती- “चाचाजी कोई कहानी सुनाईये ना।” वे जागने का भरसक प्रयास कर कुछ देर तक तो कहानी धाराप्रवाह सुनाते, पर जैसे ही नींद उनको अपनी गिरफ़्त में लेने लगती, जीभ अपना बदन चुराती और कहानी के साथ चल रहे डाॅली की कल्पना का विडियो कट होने लगता। इस तरह की कहानी से निजात पाने के लिए वह अब सीधे मुख्य बिन्दु पर आ जाती- “चाचाजी, अब चलिए ना हाट।” ढेरों महँगे खिलौने के रहते हुए भी उसे वे देहाती एवं अनगढ़ खिलौने बड़े अच्छे लगते। उसके लिए छोटी-मोटी चीजें खरीदने में चाचा जी की रेजगारी खत्म हो जाती। लौटते हुए वे पत्ते के दोने में गर्म समोसे खरीद कर लाते। लालटेन की रोशनी में समोसों को उनके साथ खाती हुई वह उनके गालों पर उभरते और गायब होते माँसपेशियों को देखती।
इन सब बातों को बीते हुए कई दशक बीत गए थे। पर, डाॅली के दिमाग ने अब भी गाँव की यादों की धुँधली तस्वीर को फ्रेम कर रखा था। एक दिन माॅल में शापिंग करते हुए उसे लगा, जैसे कि कोई उसी धुँधली स्मृति की तस्वीर के फ्रेम को तोड़कर बाहर निकल आया है। धुँधलका हटते ही आकृति स्पष्ट हो आयी और उसके मुँह से अनायास ही निकल पड़ा- “वैदेही बुआ।” सामने वाली महिला अपने लिए इस प्रकार के संबोधन के लिए तैयार नहीं थी। शायद बरसों से किसी ने उसे इस नाम से पुकारा नहीं था। कुछ देर तक तो वह अपलक उसे देखती रही, फिर एकाएक बोल पड़ी-” डाॅली बिटिया?” और उसके हामी भरते ही उसने उसे गले से लगाते हुए कहा- “कैसे याद रखा वैदेही बुआ को?” गले के साथ ही उनकी आँखें भी भर आईं थी।
आपस के वार्तालाप से पता चला कि उनके बेटे उसी शहर में अच्छी नौकरी कर रहे हैं और सभी सुख से हैं। बातचीत की रफ्तार पकड़ते ही डाॅली चाचाजी का हाल जानने के लिए बेचैन हो उठी और पूछ दिया–” चाचाजी कैसे हैं”, पर दूसरे क्षण ही उसे ख्याल आया कि उसी समय अधेड़ उम्र के चाचा जी अब तक कैसे जीवित रह सकते हैं। इसलिए उसने उनके अंत के दिनों के बारे में पूछा-“चाचाजी का अंतिम समय कैसे बीता?”
वैदेही बुआ कहने लगी- “मैं तो तारकेश्वर भइया के साथ अंत-अंत तक रही। लोग तो परिवार में रहकर भी टूट जाते हैं, पर उन्होंने हम जैसे गैरों से भी अपने आप को इतना जोड़ कर रखा था कि अपने अंतिम समय तक टूटे नहीं। फिर एक दिन… “कहते-कहते वह सहसा चुप हो गयी। अब डाॅली के लिए एक पल भी रुकना मुश्किल हो रहा था। वह पुनः पूछ बैठी- “फिर क्या हुआ?” वह फिर से बताने लगी- “सुना था कि भैयाजी चढ़ती उम्र में किसी साधारण परिवार की लड़की के प्रति मोहासक्त हो गए थे।लेकिन उनके प्यार ने कभी मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया। बस, वे उस लड़की के घर के सामने वाले खेत की मचान पर बैठ उस लड़की को निहारा करते थे। बस यह बात गाँव में जंगल की आग के तरह फैल गयी। बात जमींदार के बेटे की जो ठहरी। जब यह बात उनके पिता के कानों तक पहुँची, तो उनके गुरूर को ठेस लगी। बेटे का मन टटोले बगैर ही उन्होंने लड़की के माता-पिता को लड़की के साथ गाँव छोड़ने का फरमान जारी कर दिया। लठैतों के डर से वे लड़की को ले शहर में जा बसे। भैयाजी ने फिर भी अपने पिता की ह्रदयहीनता का विरोध नहीं किया और न ही इसके विषय में उनसे कुछ कहना ही उचित समझा। उनके पिता ने उनकी शादी अपने ही तरह के एक जमींदार की बेटी से कर दी। पिता की आज्ञा मानकर उन्होंने एक लायक बेटे की तरह शादी तो कर ली, पर लायक पति न बन सके।
शादी के बाद उनका मन अपनी गजगामिनी पत्नी को छोड़कर हिरणी-सी कुलाँचे भरती प्रेयसी के लिए भटकता। शायद प्रेम समाने के लिए उनके ह्रदय का कपाट जीवन में बस एक बार ही खुला था। समय की बहती नदी में वे दोनों पति-पत्नी दो किनारों की तरह थे। धीरे-धीरे उनकी पत्नी का मन के साथ तन भी बीमार होता चला गया। भइयाजी के लिए भी अब यह तय कर पाना मुश्किल हो रहा था कि किसमें बँधे वे? पत्नी के कर्त्तव्य-डोर में या प्रेयसी की अनंत यादों के प्रेम-पाश में?
ईश्वर ने उन्हें ऐसी दुविधा से स्वयं ही मुक्ति दिला दी। उनकी पत्नी की मृत्यु हो गयी। पिता भी नहीं रहे थे सो काम के कारण शहर आना-जाना पड़ता था। भाग्य ने एक दिन उसको भी उनके सामने ला कर खड़ा कर दिया, जो ब्याहता और दो बच्चों की माँ होने के बावजूद उनके स्मरण में ज्यों की त्यों ठहरी हुई थी।
उन्हें मालूम हुआ कि उसके पति ने उसका परित्याग कर दिया है। अब वह अपने दो बच्चों के साथ किसी तरह से गुजरा कर रही है। उनकी अंतरात्मा ने इसके लिए उन्हें ही दोषी ठहराया।
भविष्य अब उन दोनों लिए कोई मायने नहीं रखता था। साथ रह कर वे मृत पिता की भावना को ठेस नहीं पहुँचाना चाहते थे और न ही गाँव में अपनी छवि धूमिल करना चाहते थे। लेकिन मन के किसी कोने में एक कचोट थी, जिसकी भरपाई वे करना चाहते थे। उसे गहन आर्थिक संकट में देख, उसके लाख मना करने पर भी शहर का घर उसके नाम कर दिया। लेकिन वे उससे कभी अकेले में नहीं मिले। हमेशा हमदर्द बन उसकी और उसके परिवार की मदद करते रहे। फिर एक दिन ऐसा भी आया जब उम्र की ढलान पर उनसे चलना मुश्किल हो गया। ऐसे में एक रात हवेली के बाहर एक गाड़ी आकर रुकी, जिसमें से दो व्यक्ति बाहर निकले। पूछने पर बताया कि वे उनके भतीजे हैं और उन्हें शहर ले जा कर ईलाज करवाना चाहते हैं। असल में वे दोनों उसी औरत के बेटे थे। भइयाजी ने भी मौन-मूक स्वीकृति दे दी थी।
उन लोगों ने उन्हें ले जाकर मान-सम्मान से अपने साथ रखा और पिता की तरह उनकी आखिरी सांस तक सेवा की।
डाॅली के जेहन में कई खयाल उठ रहे थे -चाचाजी तमाम उम्र जिन लोगों के साथ रहे, वे उनसे किसी रिश्ते की डोर से नहीं बँधे थे। फिर भी चाचाजी ने उन्हें हमेशा वात्सल्य और मान दिया। शायद इसीलिए उन्हें भी जीवन के अंतिम समय में उस बेनाम रिश्ते ने अपनापन और मान-सम्मान देकर उनकी डूबती साँझ को एक नया सवेरा दिया।
माॅल के बाहर साँझ ढलने को आई थी और अंदर भीड़ बढ़ने लगी थी। डाॅली ने वैदेही बुआ से फिर मिलने का वादा किया और माॅल से बाहर निकल आयी। उसकी आँखें भर आईं थीं और बाढ़ में उमड़ी नदी की तरह आँखों की कोर से धार बह चली थी।