वंदना सहाय
आरती कुँज बिहारी की… मंदिर में लगे लाउड स्पीकर से आ रही आवाज़ को सुनते ही मिसेज जोशी ने अपनी कार की स्पीड को कम कर सामने कार के अंदर लगी घड़ी को देखा- ओह।सात बज गए और मंदिर मे आरती शुरु हो गयी है, यह सोच उन्होंने कार को मंदिर की दिशा में मोड़ दिया।
यह मंदिर उनकी सोसाइटी में बने साढ़े तीन सौ घरों के बीच का एकलौता मंदिर है, जो उनके घर से बस थोड़ी दूर है। कहीं न कहीं कोई ऐसा बंधन है, जो उन्हें इतनी व्यस्तता के बावजूद बाँके बिहारी के दर्शन को ला खड़ा करता है।
माथा टेकते ही दिखाई देते हैं सामने मंदिर के फर्श पर बैठे वही तीन बूढ़े। लोग भले ही समय न मिलने की दुहाई दे और मंदिर न आए पर इन तीनों के पास दुहाई देने के लिये कुछ भी बाकी न था। अस्सी वर्ष के आस-पास घूमती ज़िन्दगी और घर-गृहस्थी से पूरी तरह से टूटे हुए। उन्होंने अपनी शुरूआती जिंदगी का समय बच्चों को पढ़ाने-लिखाने और उनकी सुख-सुविधा जुटाने में खर्च कर दिया था, और अब जो इनके हिस्से में खर्च करने के लिये रह गया था- वे थीं लम्बी रातें और लम्बे दिन। न लम्बी रातें कटती थीं, न लम्बे दिन।
आरती खत्म होते ही पंडितजी द्वारा छिड़के गए जल से मिसेज जोशी की आँखेँ खुली। प्रसाद लेकर उन्होंने तीनों बूढ़ों का अभिवादन किया। इनमें से एक बूढ़े भादुड़ीजी को वे अच्छी तरह से पहचानती थी। ये मिसेज घोष के पिता थे, जो उनके पीछे वाले रो-हाउस में रहा करते थे। मिसेज घोष इनकी एकलौती संतान थीं, और इन्हें अपने पास आदर-सत्कार से रख इनकी देखभाल किया करती थी। पति और बेटे भी देखभाल में कोई कसर न छोड़ते थे।
इन और दो बूढ़ों के बारे में मिसेज जोशी कुछ खास नही जानती थीं। बस आते-जाते मंदिर पर एक पहचान-सी बन जाने के कारण औपचारिक बातें हो जाया करती थी।
हालांकि भादुड़ीजी की इन दो और बूढ़ों के साथ दूर-दूर तक कोई समानता न थी। सिवाय इसके कि जिंदगी के पार लगने के लिये ये तीनों एक ही नाव पर सवार थे और वह था- बुढ़ापा। मिसेज जोशी को कभी-कभी हैरत होती कि इतने परिष्कृत व्यक्तित्व और सोच वाले भादुड़ीजी इन और दो बूढ़ों से किस विषय पर बातें करते होंगे? पर दूसरे छण वे सोचतीं कि बूढ़े लोगों की जात ही अलग हो जाती है।
भादुड़ीजी, जो आयकर विभाग के आला अधिकारी के रूप में सेवानिवृत्त हुए थे, उनके जीवन के बत्तीस वर्ष आयकर विभाग की पेचीदा फ़ाईलों में गुज़रे थे। आयकर विभाग के आला अधिकारी के अधिकारों का निर्वाह करते हुए इन्होंने कई बड़ी-बड़ी हस्तियों को अपने सामने घुटने टेकते हुए देखा था। वे कभी सफारी सूट या कभी-कभी सिल्क का कुर्ता-पायजामा पहनते। हल्का-सा तेल लगाकर बनाये गये पूरी तरह से सफ़ेद बाल, जो आज भी बगल में निकाली गई मांग को लक्ष्मण रेखा समझ उसे आपस में कभी न लांघकर उसकी मर्यादा बनाए रखते थे।
चन्दन-सा दमकता रंग, माथे पर लाल रोली, घुटने तक धोती और शरीर पर छोटा-सा कुर्ता। ये थे, दूसरे बूढ़े जिन्हें लोग ‘बाबाजी’ कहा करते थे। ये ज़्यादातर मंदिर के फर्श पर ध्यान-मग्न बैठे रहते थे, जिससे इनकी अधिक मात्रा में नील डाली गई धोती स्याह हो जाती।
‘कृष्णन अन्ना’ कहे जाते तीसरे बूढे का रंग गाढ़ा था और नाक काफी बड़ी और मोटी थी। इनके अति साधारण पहनावा-पोशाक और बोल-चाल से लग जाता कि ये संघर्षरत पृष्टभूमि के हैँ और आज भी जिंदगी ने इन्हें भौतिक सुखों का मोहताज बना रखा है।
अपने बेटे की नौकरी लगते ही घोष-दंपत्ति ने उसकी शादी कर दी। भादुड़ीजी भी अपने एकलौते नाती की शादी से काफी खुश थे। सारा घर रंग-रोगन होकर रेशमी पर्दे पहनकर तैयार हो गया। शादी काफी अच्छी तरह से सम्पन्न हो गई।
बहु आ गई. घोष-दंपत्ति ने अपने मास्टर बेडरूम को अपने बेटे-बहू को रहने के लिए दे दिया। इसकी बालकनी मिसेज जोशी के किचन से सटी थी। बहु के आते ही बालकनी में हलचल-सी रहने लगी। सारा दिन बहू की तेज़ आवाज़ें सुनाई देतीं। एक दिन तो आवाज़ें इतनी तेज़ हो गई कि मिसेज जोशी के किचन में साफ़ सुनाई देने लगीं।
‘एट लीस्ट वेयर समथिंग डिसेंट (कम से कम ढंग के कपड़े तो पहनो)’- बेटे की आवाज़ सुनाई दी. ‘मॉम-डैड तो माइंड नहीं करते है, बट थिन्क अबाउट नानाजी (लेकिन नानाजी के बारे में तो सोचो)।’
‘ओह, एनफ! (बहुत हुआ)- बहु लगभग चीखती हुई बोल रही थी।
‘लेट मी हैव सम ब्रीदिंग स्पेस (मुझे चैन की सांसें लेने दो) ऐसा मैंने क्या पहन रखा है? यहां मुझे थोड़ी भी लिबर्टी नहीं है। आई एम फेड अप (मैं ऊब गई हूँ) तुम्हारे नानाजी क तो कलकत्ता में अपना बंगला है ना, फ़िर वहीं जाकर क्यों नहीं रहते? वहां पैसे देने पर नौकर भी देख-भाल कर सकते है।’
‘जस्ट शटअप (चुप रहो) नाऊ दिस इज द लिमिट (अब हद हो गई)। यह तो अच्छा है कि मॉम-डैड बाहर गए है, वर्ना आज तो अनर्थ हो जाता।’
भादुड़ीजी ऊंचा सुनते थे, पर इतना भी नहीं कि इतनी ऊंची आवाज़ न सुनते।
एक दिन आते-जाते मिसेज जोशी को बाबाजी मिल गए थे, मंदिर में बैठे हुए-ध्यानमग्न। जब वे दर्शन कर लौटने लगीं तो बाबाजी ने सहसा आँखें खोली और बोल पड़े- ‘तुम्हे करीब रोज ही मंदिर में आते देखता हूँ। तुम्हारी भगवान में गहरी आस्था लगती है।’
वे आँखें नीचे किये सुनती रही और फ़िर बात को आगे जारी रखने के लिये बोल पड़ी- ‘बाबाजी, आप तो यहाँ के रहने वाले नहीं लगते है। मूलतः आप कहाँ के रहने वाले हैं?
‘तुमने ठीक समझा। मैं मूलतः उत्तरांचल के एक गाँव क रहने वाला हूँ। इस सोसाइटी में अपनी बहू और पोतों के साथ रहता हूँ। बहू दिन भर ऑफिस जाती है, और पोते कॉलेजों में। फिर दिनभर घर पर बैठकर मैं क्या करता? सोचा, क्यों न बांके बिहारी से दोस्ती कर ली जाए। इसलिए मैं रोज यहीं चला आता हूं। दिनभर इनके पास समय कैसे कट जाता है, पता ही नहीं चलता।’
अपने मोटे चश्मे को धोती से साफ़ कर एक बार फ़िर वे बोलने लगे- ‘मैं गाँव में देवी मंदिर का पुजारी हुआ करता था। पर कुछ ऐसा हुआ कि सब कुछ छोड़-छाड़कर यहाँ आना पड़ा।’
अंतिम पंक्ति बोलते समय मिसेज जोशी उनके हर शब्द पर ठहराव और होठों का कम्पन महसूस कर रहीं थीं।
न चाहते हुए भी उनके मुँह से अनायास ही निकल पड़ा- ‘ऐसा क्या हुआ जो आपको यहाँ आना पड़ा?’ पर दूसरे ही छण वे आशंकित हो उठीं कि न जाने क्या सुनने को मिलेगा।
वे बताने लगे- ‘मैं गाँव में अपनी पत्नी और बेटे के साथ काफी खुशहाल था। पत्नी नेक मिली थी और बेटा भी साक्षात् बृहस्पति का अवतार था।
वह शुरु से ही पढ़ाई में अव्वल था और बोर्ड में पूरे उत्तराँचल में अव्वल आया। उसने नौकरी के लिये जो परीक्षाऐं दी, उनमें उत्तीर्ण होने पर उसे एटॉमिक रिसर्च सेंटर में काफी बड़ी नौकरी मिली। हम लोगों ने उसका ब्याह किया और काफी खुश थे। बेटा, बहू को साथ लेकर शहर में नौकरी करने लगा था।
सुना था कि वह देश के लिये काफी महत्वपूर्ण काम किया करता था। उसकी बुध्दिमत्ता और ईमानदारी से उसके ऊपर के अफसरकाफी प्रभावित रहा करते थे। एक बार उसे कोई गोपनीय कागज़ात लेकर सरकारी काम से कहीं जाना था। उसने यात्रा तो शुरु की थी पर वह गंतव्य स्थान पर पहुँचा ही नहीं। पता नहीं उसका क्या…’ बाबा बात पूरी नहीं कर पाए।
अविरल आँसुओं की धारा और तेज़ चलती साँसों के बीच आवाज़ को संयमित कर वे बोले- ‘मैं ठहरा गाँव का आदमी, कुछ समझ नहीं पा रहा था। बेटे के दोस्तों को लेकर बड़े अफसरों के पास गया। कुछ नेताओं ने भी सहानुभूति दिखाई पर सब बेकार। बस यही हुआ कि बहू को अनुकम्पा के आधार नौकरी मिल गई। झूठे आश्वासन मिलते रहे पर बेटा नहीं मिला।
बहू ऑफिस जाने लगी थी, तो फ़िर बच्चों को कौन संभालता? सो मुझे यहाँ आना पड़ा। बरसों बीत गए। तब से यहीं हूँ। पत्नी सदमे से पागल हो मंदिर की सीढियों पर सर-पटककर मर गई। ‘
उनकी आँखें धुलकर साफ़ हो गई थीं और अपना दर्द किसी के साथ बाँट लेने से उनकी आँखों और चेहरे पर फ़ैली वेदना का पटाक्षेप हो गया था।
आज मिसेज घोष की किट्टी-पार्टी थी। जैसे-तैसे इवेंट्स बढ़ते, सभी महिला सदस्यों का मुँह पिटारे की तरह खुलता चला जा रहा था। वे घरेलू खबरों को नमक-मिर्च लगाकर परोसने लगी थी। मिसेज घोष को इन बातों में कोई रुचि न थी। वे मिसेज जोशी को बताने लगी- ‘सारे घर में बहू के आने से खुशियाँ नाच रही है। बस, एक पिताजी ही हैं जो बचकानी ज़िद कर बैठे हैँ, कोलकाता जाने की। वे वहाँ से बेलूर मठ जाना चाहते है। बहुत समझाया पर अपनी ज़िद पर अड़े हैं।’
मिसेज घोष उस दिन दोपहर की घटना से वाकिफ नहीं थीं, वर्ना अपने पिता के मर्म पर लगी चोट को उनकी बचकानी ज़िद न समझती।
भादुड़ीजी कोलकाता चले गये। अब रोज डूबती शाम को मंदिर में बूढ़े बाबा और कृष्णन अन्ना मिलते थे, जैसे पंछी डूबती शाम को पेड़ पर आ मिलते है पर उनका कलरव गायब था।
कुछ दिनों तक जब मंदिर पर होने वाली आरती में कृष्णन अन्ना नहीं दिखाई दिए तो मिसेज जोशी आशंकित हो उठीं। उन्होंने उनके बारे में उनकी पड़ोसन से पुछा। उन्होंने मुँह बनाकर बताना शुरु किया- ‘कुछ न पूछो तो अच्छा है। माता-पिता अपने बच्चों को अपने खून से सींचते है और यही बच्चे बड़े होकर उनके सुखों का खून कर देते हैं। अन्ना ने अपने जीवन की शुरुआत एक राज-मिस्त्री की हैसियत से की थी। वह बाहर एक-एक ईंट जोड़कर घर में एक-एक पैसा बचाता था। इन्हीं पैसों से उसने अपने बेटे को पढ़ा-लिखाकर अफसर बनाया। आज वह अपने पिता को नहीं पूछता है। उसने घर के नीचे की कबाड़ रखने की जगह को कोठरी क रुप देकर उन्हे रहने के लिये दे रखा है। उन्हें सीढ़ियों से ऊपर आने की इजाजत नहीं है। भले ही बेटा-बहू का पालतू कुत्ता पलंग पर क्यों न बैठे। यह वही मकान है, जिसे अन्ना ने अपनी मेहनत के पैसों से गाँव में ख़रीदे गये जमीन के टुकड़े को बेचकर यहाँ खरीदा था बहू रोज-रोज अन्ना को सताने क नए षड्यन्त्र ढूंढती। एक दिन तो बात इतनी बढ़ गई कि ज़िल्लतों से बचने के लिये अन्ना बिना रिजर्वेशन के ही अपने गाँव जाने वाली रेल में जा बैठे।
सावन का महीना आ चुका था। आकाश काले बादलों से भर गया था। बीच-बीच में बिजली चमक उठती थी। बूंदा-बांदी शुरु हो गई थी। ऐसे में आरती का समय होते ही जब मिसेज जोशी मंदिर पहुँचती हैँ, तो देखती है कि पुजारीजी अकेले ही आरती गाकर बाँके बिहारीजी को रिझाने की कोशिश कर रहे थे। बाबाजी भी गायब थे। उन्होंने सोचा कि बारिश के डर से वे आज नहीं आए होंगे।
उनका मन हो रहा था कि पुजारीजी से कहकर सामूहिक रूप से झूलनोत्सव करवाया जाए। इसलिए आरती ख़त्म होने पर उन्होंने अपना विचार पुजारीजी को बतलाया। पुजारीजी कह उठे- ‘हाँ, काफी सुन्दर विचार है, झूलनोत्सव का। सब इंतज़ाम हो जाएगा। पर संयोग देखो। उन तीन बूढ़ों को कितनी इच्छा थी, झूलनोत्सव को देखने की। इसके बारे में वे अक्सर पूछते थे। पर आज जब मौका आया तो कृष्णन अन्ना और भादुड़ीजी तो जा ही चुके है, कल रात में एकाएक बूढ़े बाबा भी मुझे बताने लगे- ‘मैं बरसों बाद अपने गाँव जा रहा हूँ। पता नहीं लौटकर आ भी पाऊँगा या नहीं, मुझे बाँके बिहारी के फ़िर दर्शन होंगे भी या नहीं।
इतने दिन से तो सब ठीक-ठाक ही चल रहा था, पर पता नहीं मेरे पोतों और बहू को क्या हुआ, जो वे सहसा बोलने लगे कि मैं गाँव की ज़मीन और मकान बेच दूँ, जिससे वे यहाँ एक नया प्लाट खरीद लें। उन्होंने बूढ़े बाबा को यादों की खहंडर से बाहर निकलने को कहा। बाबा ने यह भी बताया कि उनके पोते और बहू तो साथ नहीं जा सकते, उनके पास समय नहीं है, पर वे उन्हें स्टेशन जाकर रेल में अवश्य बैठा देंगे।