राग बिखरा बेसुरा हो, ज़िन्दगी के गीत का
स्वप्न पर पाला जमा है, मुश्किलों की शीत का
कर्ज का पत्थर धँसाता दीन को अब गर्त में
ब्याज का चलता हथौड़ा है बली की शर्त में
हाथ थामे कौन आकर, अब सुदामा मीत का
छानियाँ झंझा उड़ा कर ले चलीं परलोक को
शोक देखे आँख फाड़े, अब स्वयं ही शोक को
आदमी जीवन बिताता, हो विवश संभीत का
हैं बहुत गतिरोध गाड़ी, आय की बढ़ती नही
लंघनों में रात लंबी, आँख में ढलती नहीं
हार का हर पल हमारा, पर्व उनकी जीत का
झोलियों में शाप शापित,हाथ में अंगार हैं
झेल कर प्रतिदिन कुपोषण हो गए बीमार हैं
सामना करते निरंतर, धार के विपरीत का
भाव के सागर उमड़ते, आँख से नदिया बहे
वो जिसे सुननी व्यथा है, दूर ही हमसे रहे
छीन लेता जग कटोरा, नेह के नवनीत का
स्नेहलता ‘नीर’