नहीं मालूम मुझे- विभा परमार

नहीं मालूम मुझे
कि कल्पनाओं में
जीना कहां तक ठीक है
मगर मैं जीती हूँ
अक्सर,
कल्पनाओं के सागर में
उसकी गहराई को मापने
फ़िर सोचती
आख़िर मेरा मन वास्तविकता से इतना उदास क्यूँ
इतना व्यथित और विचलित क्यूँ
दिखता है ऐसा भँवर
जिसमें वास्तविकता की ख़ूबसूरती
भयानक नज़र आती है
ईमानदारी, मानों ख़त्म सी दिखती
छल कपट की नदियाँ अधिकतर बहती हैं
सीरत सिर्फ़ कहानी में गढ़ी जाती!

वास्तव में
सूरत ही असली किरदार निभाती
हर जगह गजब नहीं!अजब से इंसानों का कारवाँ गुज़रता
जिसमें लगती है होड़
ख़ुद को बेहतर दिखाने की
प्रतिभा का पैमाना महज़ पैसों से ही आंका जाता

विडंबना कहो या बेशर्मी
इसलिए सिर्फ़
मुझे कल्पनाओं में जीना भाता है

-विभा परमार