कभी-कभी
वह अपने विचारों की कंघी से नाखून कुरेदती हुई,
हौले से उसाँस में सिर्फ हे राम हे राम कहती,
वह अपनों से परेशान न थीं
न वह उस वक़्त अपनें प्रभु को स्मरण कर रही होती,
न शिकायतों का पिटारा उड़ेल कर बैठी,
उसकी बुद्धि क्षुब्ध और ,
विचार नये सफ़र के राही बन गये।
आज वह तलाश रही अपना वजूद,
इस कोने से उस कोने में,
जो कभी तरासना ही नहीं।
कुछ खोनें का डर नहीं,
न चाहत उसे कल की,
उसाँस में फफ़क रहा वक़्त जो कही ग़ुम हो गया,
तलाश रही अपनें निशां जो उकेरे ही नहीं,
विचलित मन से अपनें ही क़दमों की आहट तलाश रही,
कहाँ छुट गया वह वक़्त जो कभी
उसका हुआ करता था?
यह जिंदगी का वह दोराह है,
जहाँ कल नहीं मिलता,
आज उसके साथ नहीं रहता।
सांसें चल रही,
आहटों का कोलाहल न था,
कहाँ छुट गया वह वक़्त जो कभी जिंदगी रहा उसकी?
यह जिंदगी का वह फक़त खुलासा था,
जो जिंदगी भर उसने जिंदगी के साथ किया
-अनीता सैनी