दो घड़ी का प्रेम तुमसे पा लिया था और तब से
आज तक उर नेह की निधियाँ लुटाता है
दो क्षणों के बोल मीठे
दग्ध हिय हुलसा गये थे
प्राण तेरे हास की, मृदु
ओस में झुलसा गये थे
था चखा पीयूष तेरे नयन-घट से घूँट भर जो
तब से प्रतिपल मन निरा आँसू बहाता है
बूँदभर सुख पा गया मन
इक मधुर आघात से
और तुम फिर,फिर गये
अपनी कही हर बात से
मानसी-मृग स्वप्न-वन में खो गया था किन्तु अब
सत्य निर्मम धूप में काया जलाता है
व्यर्थ की हर दौड़ में
हर पग पथिक बनकर चला
और तुम सहचर ह्रदय के
पर तुम्ही नें ह्रद छला
थी भटकती देह-द्वारे मेरे प्राणों की भिखारिन
पिय अजाना डग तुम्हारे द्वार लाता है
दी जो तुमनें पीर, माथे
पर मुदित होकर सजायी
विस्मृति के शूल-नूपुर
पाँव पायल छनछनायी
त्याग दी मेरी कलाई, जब तुम्हारे कंगनों नें
अलंकृत स्पर्श भी सुईयाँ चुभाता है
थे तुम्हारे वचन, मेरे
स्वप्न का संसार प्रियतम
फिर लिया क्यों छीन,मुझको
दे अमिट आधार प्रियतम
स्मरण हो मांग में तुमनें भरा था प्रीति की जो
सिंदूरदानी में पड़ा सेंदुर अघाता है
कामनायें कंचनी जो
हो चुकी हैं धूलि सारी
रेशमी आँचल विच्छिन्नित
त्याग की मिट्टी उघारी
थे तुम्ही सम्बल तो दौड़ी थीं अपाहिज भावनायें
आज पक्षाघात उनको मार जाता है ..
तुम थे तो नक्षत्र ,नयनों
में सुखद जलने लगे थे
आस के मनके ह्रदय की
सीप में पलने लगे थे
बस तुम्ही थे जो पलक पर थे उठाते ओस वरना
अनाथ अर्थी क्यूँ कोई कांधे उठाता है
-आराधना शुक्ला