सारा जग में हारूँ जो खेले तू
मेरे मेरे संग कान्हा होली
लगाऊँ फाग में लाल गुलाल
तू रंग दे मोहे सच्ची प्रीत में!
राधा तेरी थी तेरी ही रहेगी
चाहे कितनी ही रूकमनियों ब्याह लें
कुमकुम नहीं लगाया तूने
फिर भी मेरी माँग भरी है
राधा का मोहन के नाम से!
वृदावन का वन
ब्रज का पनघट
कान्हा की गोपियाँ
माखन की मटकी भरे
आँखों में आशाई लिए
राधा वही खड़ी है
जहाँ पर छोड़ा था
श्याम से मिलन के लिए!
क्योंकि राधा की आत्मा
आज भी वृदावन की
धरा पर भटक रही
कब कृष्ण की बाँसुरी बजेगी!
इस होली गोपाल ब्रज आकर
राधा के संग खेलो होली
मुक्त कर दो उसकी आत्मा को
परमात्मा तुम से मिलन को!
-कुमारी अर्चना ‘बिट्टू’
पूर्णियाँ, बिहार