कैक्टस के पौधे को
लोग लगा तो लेते हैं
पर छोड़ देते हैं
छत के किसी कोने में
चुपचाप अकेलेपन के
दंश को सहने के लिए
वो धूप में बरसात में
तन्हा ही सब कुछ सहता है
पनप आते हैं उसके
जिस्म पे हजारों कांटे
कोई छूना चाहता नहीं उसको
अछूता सा वो
हजारों कांटों का बोझ उठाता है
कहाँ अच्छा लगता है उसे भी
कांटों के साथ जीना
कांटों के साथ ही जिंदगी काटना
सबसे अलग रहना
चुपचाप सब कुछ सहना
नहीं चुभना चाहता किसी को
पर क्या करे, चुभ जाना ही
उसकी नियती है
उसे पता है अब ना वो
अपना स्वभाव बदल सकता है
ना अपनी किस्मत
– रुचि शाही