रूठा हूँ ख़ुद से, ख़ुद को मानता हूँ
बची हुई जिंदगी इस तरह बिताता हूँ।
कौन जाने किस शहर हर गली अंधेरा हैं
जले हुए खाबों को इस तरह सजाता हूँ।
मुश्किलों का सफ़र हर ग़म आज़माता हूँ
हर दर्द की दवा ख़ुद मैं बनाता हूँ।
ज़िंदगी का सलीका समझ नहीं पाता हूँ
ख़ुशी हो या ग़म बांटता ही जाता हूँ।
अपनी अस्थियों से दीप मैं जलाता हूँ
तब जाकर किसी घर रोशनी दिखाता हूँ।
-दीपक कुमार
(सौजन्य साहित्य किरण मंच)