वो जो रात थी
कुछ खास थी
तेरे मेरे जो दरम्यां थी
वो किस्से बन
दबी ज़ुबाँ से
अब सबकी ज़ुबाँ पे थी
वो राहें
जो हमक़दम थी
अना का हाथ पकड़
जुदा हो गईं थी
ना तुमने कहा किसी से
ना हमने बयान दिये थे
जिन्हें छुआ था
अपने लबों से हमने
शबनम के वो कुछ क़तरे
उन राहों में बिखर गये थे
वही हमारी
शायद
चुगलियाँ कर रहे थे
कि ग़ुज़रा था कभी इक काफ़िला तेरे मेरे इश्क़ का
ना सफ़र में रहा
ना मंज़िलें पा सका
अधुरी दास्तां का
इक पत्ता
वक़्त की शाख से
अब टूट कर रो रहा था
कुछ बची रह गई थी
एहसास की सूखी टहनियां
सुलग रही थी
और खाक़ हो रही थी
वहीं से कोई
दर्द की इक कली
हर रहग़ुज़र को छू कर
महकाती जा रही थी
हाँ..
वो जो बात थी
कुछ खास थी
तेरे मेरे जो दरम्यां थी
-सुरजीत तरुणा