जब ईश्वर नें संसार के कपाल में पीड़ा लिखा
तब उसे स्त्री बनाना पड़ा
क्योंकि वह भी जानता है
पीड़ा का अनुभव करने
और उसे सहने की क्षमता केवल स्त्रियों में ही है
ठीक उसी तरह
जैसे किसी स्त्री की गोद में
भूख से तड़पता उसका दुध मुंहा शिशु हो
और उसकी छाती का दुध सूख गया हो
ऐसी परिस्थिति की लाचारी का अनुभव
और उसे सहना एक स्त्री ही कर सकती है
जबकि उस शिशु का जन्म
स्त्री पुरुष के रक्त से मिलकर ही होता है
जो एक पुरुष बनता है वह पुरुष
पीड़ा का अनुभव कर सकता है परन्तु स्त्री पीड़ा को जीती है…
पीड़ा अगर स्त्री का परम दुख है
तो वही उसके स्त्री होने का गर्व भी है
हाँ जरूरी यह है कि
किसी भी हालत में कमजोर पड़कर
वह पीड़ा को प्रहार न बनने दे स्वयं पर
“स्त्री सक्षम है, सशक्त भी बनी रहे।”
-अनामिका चक्रवर्ती