बस गई जो छवि हृदय में प्रीति से उसको सजा लूँ
याद का मंदिर बना कर प्रेम का दीपक जला लूँ
कर रही हूँ मैं समर्पित भावनाओं के सुमन
अंजुरी में नेह-जल भर के करूँ मैं आचमन
स्वाँस की लय पर सदा से हो रही है आरती,
प्रेम की प्रतिमा के आगे क्यों न फिर मैं सिर झुका लूँ
रात-दिन ढूँढे भजन जब धड़कनों की झाँझ को
चेतना का शंख गूँजे भोर में नित साँझ को
मुझमें है वो या मैं उसमें फर्क क्या हम एक हैं
वो जहाँ को भूल जाये चाहे मैं दुनिया भुला लूँ
मन का सागर भी है व्याकुल चंद्रमा को देखकर
छुप ना जाये बादलों में ये चंदनियाँ झेंपकर
मौन की आवाज़ सुनकर काँपती जब पत्तियाँ,
उस घड़ी के ख्वाब सारे अपनी पलकों में छुपा लूँ
-शीतल वाजपेयी