मौन के पथ पर चलते चलते शब्दों के घर तक पहुंचे
जैसे कोई प्रीत के पल्लव लिए स्वयंवर तक पहुंचे
भावों की पदचाप सुनी तो, सारे ही पट खोल दिए
शायद कोई चला आये जो मन के अन्दर तक पहुंचे
कितनी सदियाँ बीत गयीं, ब्रज की गाथा कहते कहते
राधा की अनकही व्यथा अब तो नटनागर तक पहुंचे
मेरे अंतस के मंथन से आज हलाहल निकला है
सोच रहा हूँ की अब कैसे यह शिव शंकर तक पहुंचे
आँखें भीचीं मन ने कर ली मनाधीश से सब बातें
फिर क्यों भक्ति हवन यज्ञ के इस आडम्बर तक पहुंचे
आँखों में आंसू की बूँदें या उद्गम है सरिता का
ज्ञात नहीं है कि ये किस आँचल के सागर तक पहुंचे
माना की हम मन ही मन में, मन अपना खो बैठे हैं
लेकिन अपनी प्रीत ‘सलिल’ अब मंडप सोहर तक पहुंचे
-सोहन सलिल