“मैं चिड़िया हूँ”
मैं जानती हूँ पर मैं कैसी लगती हूँ
खुद को देख नहीं पाती
पर जब भी नदी नालों में स्नान करने
व प्यास बुझाने जाती हूँ
उक्कंठा सी मन में हिलोरे लेती
ऐसी कौन सी वस्तु है
जिस में मैं जैसी हूँ
ठीक वैसी की वैसी दिखूँ
चलते चलते उड़ते उड़ते
जब गाड़ियोंमें लगे दर्पण से टकरा जाती
तो कभी किसी के कमरे में लगे दर्पण से
तो मैं अपने जैसी ए चिड़िया को देख
घबरा जाती हूँ अपनी चोंच से उसे
घायल कर देना चाहती हूँ
बार बार कोशिश कर
जब थक जाती हूँ तो जान जाती हूँ
कोई और नहीं मैं ही हूँ
मंद मंद मुस्काती हूँ
फिर अपना नैन नक्श निहारती हूँ
फिर उन परों को देखती हूँ
जो मुझे अन्नत आकाश की सैर कराते है
मैं फिर उन परों का शुक्रिया करती हूँ
जो मुझे मानव और अन्य जीवों से बचाते है
सुरक्षा के संकटमोचन है मेरे ये पर
सदा उनकी रक्षा मैं तत्पर रहती हूँ
जैसे पिजड़े में कैद हो जाती
मौका मिलते ही फुर्र हो जाती
उन्हीं परों के सहारे
जब कट जाते ये मुझसे
मैं समझ लेती हूँ
प्राण पांखूर हो गए मेरे!
-कुमारी अर्चना ‘बिट्टू’
पूर्णियाँ,बिहार