ख़ुद में ही डूबती उभरती हूँ
जाने किस को तलाश करती हूँ
दिल में जीने की आरज़ू ले कर
मैं कई बार रोज़ मरती हूँ
भर न जाए ये ज़ख़्म-ए-दिल मेरा
इसलिए छेड़छाड़ करती हूँ
तुम यूँ ही आईना बने रहना
मैं तुम्हें देख कर सँवरती हूँ
ख़ामुशी मुझ को रास आती है
इसलिए तोड़ने से डरती हूँ
क्यूँ यहाँ हूँ कहाँ है अब जाना
ख़ुद से अक्सर सवाल करती हूँ
मैं गुरेज़ां हूँ खुद से कुछ ऐसे
अपने साये से भी मुकरती हूँ
उस की तस्वीर में ‘सुमन’ अक्सर
मैं वफ़ाओं के रंग भरती हूँ।
-सुमन ढींगरा दुग्गल