ज़िन्दगी के हर सफ़्हे पर, मैं रेत की तरह बिख़रता गया
तेरे हिस्से की बहार सौंप, मैं पत्तों की तरह टूटता गया
नज़रों में अब है दूर तलक, सिर्फ़ काँच के टुकड़े
सीने में पिरोकर उनको, मैं इस तरह जुड़ता गया
दिल के अरमानों को जलाकर, अपने बेबस हाथों से
उठते हुए धुँएें में मेरा ज़ख़्म,हर तरह छुपता गया
हथेली पर तेरे कदम रखकर, तेरा आसमाँ तुझे दिया
मंज़िलें तेरी रही, मैं सूनी राहों की तरह मुड़ता गया
अपना तबस्सुम तेरे होंठों पर सजाकर मैं ‘तरुणा’
तेरी ख़ुशी को, अपने ख़्व़ाबों की तरह बुनता गया
-सुरजीत तरुणा
(काव्य संग्रह- ख़ामोश धड़कनें से)