कोई तो लौटा दो
मेरे बचपन की वो होली
रंगों में डूबी
पानी में भींगी
कीचड़ में सनी
गोबर से खेली
पिचकारी से उड़ी
गुलाल से रंगी
फागुन मौसम में सजी
गीत में डली
सपनों में बुनी
अपने से मिली
हमजोली संग झूमी
प्यार में मिली
नफ़रतो को भूली
संयुक्त परिवार बंधी
समाज संग धुली मिली
प्रकृतिक रंग से रंगी
बड़ों के पाँवों में लगी
वक्त से अपना रूप बदली
अपनों से दूर
पराओं के बीच
कृत्रिम रंग से रंगी
चेहरों पर लगी
दिल सूखी रही
मिलावटों में मिली
रीति रिवाजों से हटी
परम्पराओं उड़ाती खिल्ली
बड़ों करना सम्मान भूली
उपभोगतावादी युग ने
वस्तुओं का महत्ता बनायी
लोगों के दिल की छोटी!
कोई फिर से ला दो
मेरी वही बचपन की होली!
-कुमारी अर्चना “बिट्टू”
पूर्णियाँ, बिहार