जिसके साये में जीत करते हैं
उसकी ही बातचीत करते हैं
उसकी नेमत को मीत करते हैं।
सच्चा जीवन व्यतीत करते हैं
ये जो वर्तमान की गंगा बहती,
इसमें अर्पित अतीत करते हैं
भाव जो धो रहा है शामो सुबह,
नाम उसके ये गीत करते हैं
अपने चेहरे के चेहरे ढूँढें,
चल शुरु ये सुरीत करते हैं
चलो कुछ नया सा करें यारो,
भीत के भीतर भीत करते हैं
काहे के ये ‘व्यथित’ बचे यारो
व्यथा को पीत-पीत करते हैं
-सुधीर पांडेय व्यथित