मैं मैदानों में रहती हूँ और सपने देखती हूँ पहाड़ों के…
सपने देखते हुए बिल्कुल नहीं सोचती,
बिल्कुल भी नहीं
कि कितना कठिन है जीवन इन सुंदर पहाड़ों में
गिरती हुई चट्टानों से, फटते हुए बादलों से, ठंड से, बर्फ से
और आड़े-टेढ़े रास्तों से, खुद को बचा के चलना
सबसे तो मुश्किल है इन उँचे पहाड़ों को ताकते हुए
बचा पाना अपनी गर्दन को अकड़-जकड़ जाने से
पर यकीन मानिए..
मैं सपने सोई आँखों में ही देखती हूँ
आँखें खोलते ही पैरों के नीचे होता है
वही ठंडा सपाट कॉंक्रीट का फर्श
पर जब भी सपनों में होता है रेगिस्तान..
और मैं भटकती हूँ दूर तक रेत के ढूहों में
किसी सुनहरे रेतीले बवंडर में गुम हो जाने तक
तब भी, बिल्कुल नहीं सोचती कि ये बवंडर
सच में कितने भयावह होते हैं
कितना-कितना मुश्किल होता है इस
मरुस्थल में खोने से बच जाना
पर यकीन मानिए..
जब जागती हूँ इन सुनहरे रेतीले सपनों से
मेरे तकिये का नर्म गिलाफ रेतीला होता है
और मेरी आँखों में चुभ रही होती है रेत
हालांकि, सपने मैं सोई आँखों में ही देखती हूँ
-नंदिता राजश्री