जब स्पर्श करती है कोई स्त्री किसी पुरुष का
तो सच मानिए वह देह से बहुत परे होती है,
वो छू रही होती है बहुत सारे सपनों को,
वो छू रही होती है किसी दर्द हरित औषधि को
वो निकाल रही होती है एक पीड़ा जिससे उसकी देह नही वरन आत्मा तक दुःख रही होती है…….
पर विडंबना है नियति की
या फिर दोष है प्रारब्ध का…..
जिसे वो छू रही होती है मन से…..
वो तन से परे सोच ही नहीं पाता…..
उसको दिख रहे होते हैं तमाम संस्कार समाज के,
बेड़ियाँ रिश्तों की,
परवाह भविष्य की,
काश वो देख पाता-पीड़ा मन की
समर्पण आत्मा का….
-शिवानी विनय सिंह