रिश्तों की मिट्टी- रुचि शाही

रिश्तों की मिट्टी
इतनी भी उपजाऊ नहीं होती
कि हमारे रोपे गए तमाम
आशाओं और उम्मीदों के पौधों को
सींच पाए
उन्हें जीवन दे पाए
कुछ अपेक्षाओं के
छोटे-छोटे मासूम पौधे
लगते ही मुरझाने लगते हैं
नहीं खिल पाते उनपे
प्यार के कचनार, रंग-बिरंगे फूल
नहीं निकल पाती उनकी शाखाओं से
खुशियों की ताजी हरी कोपलें
नहीं मिल पाती उन्हें वो देखरेख
जो मिलना चाहिये
कुम्भला जाते हैं वो
बेरुखी की तेज धूप सहते-सहते
और ग़ुम हो जाता है
उनका अस्तिव
रिश्तों की मिट्टी में ही दफ़्न होकर

-रुचि शाही