ये दुनिया अगर मिल भी,
जाये तो क्या है?
ये नाम-शोहरत भी मिल
जाये तो क्या है?
मिल जाएगी दुनियां की
अगर सारी नेमतें
लेकिन तेरा एक न मिलना,
लगाता है प्रश्नचिन्ह
इन सब उपलब्धियों पर।

क्या यहीं पाना चाहा था?

ये प्रश्न उतर जहन से,
दौड़ने लगता है जिस्म में
और कचोटने लगता है अंतर्मन को
पड़ जाता है सफेद चेहरा मेरा
ये दंश झेल नही पाता मैं।

पूछता हैं ये सवाल होकर भी
एक सवाल मुझसे
क्या पा लिया तुमने
वो सब जो चाहा था जीवन में।

मैं देख कर आईना
फेर लेता हूँ खुद से नजरें
क्योकि इस सवाल से निकलता हैं,
सवालों का शेषनाग
और डस लेता है मुझे
और मैं छटपटाते हुए बस
यहीं सोचता हूँ कि

मैं तो चाहता था
तेरे साथ ये पल जीना।
ये पल न सही
लेकिन तेरे वजूद का होना
और मेरा उस वजूद में
जिंदगी जी लेना।
जैसे बरगद देता है जीवन
नये निकल आये पौधों को

मैं संवारना चाहता था
अपनी उंगलियों से तेरी जुल्फों को,
लिखना चाहता था कविता, गीत
और उपन्यास तुझ पर।
यही सब जो आज सुनाता हूँ सबको।

चलना चाहता था साथ तेरे,
दूर जीवन के रास्तों पर बिना थके।
बिल्कुल वैसे ही जैसे
मेरी पूरी ऊर्जा का प्रवाह
तुम ही हो सूरज की तरह।
मैंने सपने सजाए थे बेशकीमती
तेरे साथ जीने के।

फिर से बन सँवरना चाहता हूँ
तुमको देखना चाहता हूँ
दूसरो से दूर रहने की हिदायत देते हुए
मैं इस हाड़ मास के मर्द में
जान फूंक देना चाहता हूँ।

लेकिन इस जीवन का औचित्य
तुमको खो कर खुद को पाना है?
तो नही पाना मुझे ये जीवन।
मुझे खत्म कर लेनी थी
जिंदगी अपनी वहीं
जहाँ मेरे हाथ मे तेरा हाथ था
और जीवन के सतरंगी प्यार के पल।।

– निधि चौहान