अंगार हमारी नियति बने
फूलों की भाषा क्या जानें
गलियारों ने पाला पोषा
महलों की भाषा क्या जानें
तन स्वेद बहाया रात दिवस
अभिसिंचन करने मधुवन का
पोषित करने संस्कार सभी
नित चैन लुटाया जीवन का
हमने ओढ़े पहिने चिथड़े
शालों की भाषा क्या जानें
जगने तो पाथर बोल दिया
हर रोम हमारा रोता है
जब पीर सताती है सबको
कुछ क्षोभ हमें भी होता है
नालों से प्रीत लगा बैठे
गालों की भाषा क्या जानें
आशा अभिलाषा नयनों में
हर बार जगी पर लौट गयी
दस्तक़ दी थी सम्मोहन ने
आहट आयी पर लौट गयी
बस सूखी रोटी ललचायी
थालों की भाषा क्या जानें
-डॉ उमेश कुमार राठी