मिट्टी से बना घड़ा हूँ मैं
सदा रहता एक समान,
थोड़ी सी ठोकर से टूटने-फूटने वाला
कभी खोया नहीं अपना स्वाभिमान
शीतल जल जीवन का
सदा मैं पिलाता हूँ,
मन उमंग हर्ष के साथ
मन ही मन मुस्कुराता हूँ
जब होता कमरिया पर गोरिया के
सुन्दरता में चार चाँद लगाता,
होता जब हूँ उसके माथा
मैं भी हूँ इतराता-बलखाता
कभी पनघट पर बैठा
जीवन का अहसास कराता हूँ,
मिलन होता जब कुअंना से
गंगाजल में डुबकी लगाता हूँ
शीतल में भी शीतल हूँ
दीन हीन घर-घर का वासी,
सृष्टि के साथ जन्म मेरा
हूँ सदा अविनाशी
मिट्टी हूँ मिट्टी से बना हूँ
मिट्टी में मिट्टी मिल जाऊँगा,
जब तक है अस्तित्व मेरा
शीतल नीर पिलाऊँगा
जब तक है अस्तित्व मेरा
शीतल नीर पिलाऊँगा
त्रिवेणी कुशवाहा ‘त्रिवेणी’