कोई और होता तो समझ आता।
दिल ये मेरा कुछ सम्भल जाता।।
जो ये तूने किया तो कहाँ जाऊं मैं।
शीतलता दिल की कैसे पाऊं मैं।।
मैंने तुमसे निस्वार्थ प्रेम किया था।
अपना तन-मन तुमको दिया था।।
धन-दौलत, सुख-सुविधा चाहा न मैंने।
किसी भी कसौटी पर तुम्हें तौला न मैंने।।
चाहत थी बस…बराबरी का अधिकार।
न कोई छोटा-बड़ा, न ही कोई मनोविकार।।
मैं पुरुष तुम स्त्री का कोई राग-द्वेष न रहे।
मैं श्रेष्ठ तुम हीन का कोई कलेश न रहे।।
पर तूने मेरे कपोल स्वप्नों को मृत्युदंड दे डाला।
स्त्री होने के खातिर मेरी स्वतंत्रता का हनन कर डाला।।
कहने लगा तू…समाज में स्त्रियाँ ही तो त्याग करती हैं।
शादी करने के बाद वो सारी ज़िंदगी ऋण भरती है।।
तुम अनोखी नहीं हो, तुमको भी यह करना होगा।
शादी के बाद आजादी, अधिकारों का त्याग कर मोल भरना होगा।।
यह सुन मैं बोली…हाँ हो सकता है मुझे भी यह करना पड़े।
अपनी इच्छाओं को त्यागकर यह मोल भरना पड़े।।
पर तब मैं प्रेम नहीं कर पाऊंगी।
प्रेम में मैं दर्द नहीं सह पाऊंगी।।
मुझे अफ़सोस नहीं है तुम्हारी जैसी सोच पर।
न ही दर्द है दिल पर तेरी लगाई खरोंच पर।।
यह तो बीमार मानसिकता है सम्पूर्ण समाज की।
सदियों से चली आ रही फैली हुई है आज भी।।
ग़म सिर्फ ये है कि तुमने समझा नहीं मुझे।
उस स्त्री को जिसने चाहा प्रेम किया था तुझे।।
कोई और होता तो मुझे समझ आ जाता।
तब शायद दिल ये मेरा सम्भल जाता।।
सोनल ओमर
कानपुर, उत्तर प्रदेश