समय चाल के साथ ही,
बदला अपना गाँव।
आदिसंस्कृति में पगी,
अब भी पीपल छाँव।
डोली अधुनातन हवा,
गाँव शहर में लीन।
कौशल, कला, विशिष्टता,
भूल गए प्राचीन।
अँग्रेजी शैली रुचे,
लुप्त ग्राम्य परिवेश।
दूध, दही, घी अब नहीं,
चाय मिले लवलेश।
गाँवों में अड्डे जमे,
गाँजा, जुआँ, शराब।
आवारा घूमें युवा,
करते काम खराब।
गाँवों में भी अब नहीं,
हवा प्राकृतिक शुद्ध।
पिता, पुत्र, भाई, बहिन,
चलते नियम विरुद्ध।
गाँवों में बच्चे – युवा,
मोबाइल में मस्त।
खेलकूद विस्मृत हुए,
पर्वोत्सव हैं पस्त।
युवा खोजते नौकरी,
छोड़ खेत – खलिहान।
करना मजदूरी भली,
बनना नहीं किसान।
गाँवों का शहरीकरण,
लाया बहुत विकास।
ग्रामीणों को भा रहा,
सुखमय भोग विलास।
रुके पलायन गाँव से,
मिले हाथ को काम।
सम्मानित कृषि – कर्म हो,
उपज दिलाए दाम।
जीवित गृह उद्योग हों,
गाँव बनें आदर्श।
स्वच्छ स्वस्थ सद्यत्न से,
फूलें-फलें विमर्श।
गौरीशंकर वैश्य विनम्र
117 आदिलनगर, विकासनगर,
लखनऊ, उत्तर प्रदेश- 226022