रूची शाही
तुमसे दूर होकर मैंने जो कुछ लिखा
वो सब कवितायें बन गयी
लिखना नहीं सीखा मैंने
बस सीखने लगी तुम्हारे बिन रहना
और यूँ ही रहते-रहते, जीते-जीते
मेरे अंतस की सम्वेदनाएँ लगाने लगी आवाजें
बहुत गहरी पुकार थी
बस तुम तक नहीं पहुँच पाती थी
तुम्हारे साथ बिताए गए हर लम्हें का जिक्र था
जो दर्द बन के अब पल रहा था मेरे भीतर
अकेलेपन के साये में वो आवाजें
उतरने लगी आँसू बनकर आँखों से
अपने प्रेम को अजनबी बनते देखना
और उससे अजनबी सा
मिलने का हौसला भी आ गया मुझमें
पर फिर भी जब्त नहीं हो पाए मुझसे
आखिर कितना समेटती मैं
बस वही आँसू जो समेटे नहीं गए मुझसे
वो उतारने लगी पन्नों पर
शायद उनकी शक्ल अब मिलने लगी है
कविताओं से