कुछ किस्से- माया

कुछ दर्द छिपे रहें तो बेहतर हैं
कुछ किस्से ना कहें तो बेहतर हैं
लौटकर उन ग़मगीन यादों में
अपने ही ज़ख्मों को कुरेदकर
फिर इन्हें हरा ना करें तो बेहतर हैं

जिस दर्द को रखा है तुम्हारी अमानत समझ कर
बंद रहने दो इनको पलकों में मेरे
जब टीस मन की चुभेंगें मुझे
ये आसूं बनकर निकल जायें तो बेहतर हैं

ज़माने को दिखा कर ज़ख्म अपने
इन्हें सरेआम ना करेंगे
सौदागर बहुत हैं ज़माने में कुछ इस तरह के
जो दवा के नाम पर ठग लिया करेंगे
ये वक़्त का दिया है, वक़्त पर ही छोड़ दिया
वक़्त ही मरहम बन जाये तो बेहतर है

सम्भाला है खुद को मुश्किलों से उबरकर
ज़िंदा रखा है साँसों को सिसकियों से निकलकर
इस दर्द को पलने दो इसी तरह
ये खुलेआम ना हो तो बेहतर हैं

-माया