भीड़ कितनी भी हो मगर
पर तन्हाईयां रास आतीं हैं
होती है कुछ वेदना भरी
स्मृतियां मन मस्तिष्क से
नहीं निकल पातीं हैं
ऐसे ही जब कोई अपना
असमय ही साथ छोड़ जाता है
मन में सिवाय वेदना के
कुछ भी नहीं रह जाता है
इक क्षण में बिखर जाते हैं
रिश्तों के मायने टूट कर
द्वेष पाल कर बैठ जाते हैं
वेदना पहुंचाने मेंं अक्सर
जीवन में कई मोड़ लेकर
आते हैं जिंदगी के रास्ते
कहीं कहीं फूलों भरे हैं
कहीं भरे असंख्य कांटो से
कभी कभी कह दी जाती है
कुछ बातें अनजाने में
एक पल भी नहीं सोचते हैं
हम उसे वेदना पहुंचाने में
लौटकर नहीं आती हैं
जो बातें ज़बान से निकले
मन ही मन तड़पातीं हैं
जो गर ख्याल से न निकले
क्यों खुद की खुदगर्जी में
इतना खो जाते हैं लोग
वेदना पहुंचाकर मन को
फिर हो जाते हैं मौन
कोशिश हर इंसान की
अपनेपन की होनी चाहिए
कभी भूले से न देना किसी को दर्द
वो इंसानियत होनी चाहिए
-अनुराधा चौहान