ज़माने के वसूलों से बगावत तो नहीं होती
कि मुझसे यार अब कोई शरारत तो नहीं होती
नज़र का खेल दुनिया है मगर नज़रों में धोखा है
नजऱ जो देख ले सारी हक़ीक़त तो नहीं होती
मेरे हमदिल बिना माँगें मशवरा दो न मुझको अब
मुझे मालूम है लब में मुरौव्वत तो नहीं होती
न होता इश्क़ जो दिल को तेरी सूरत से ऐ हमदम
तेरे क़िरदार की मुझको ज़रूरत तो नहीं होती
तवज्जो दूँ तो कैसे दूँ तुम्हारे ग़म को मैं आख़िर
हमारे ग़म की ही मुझसे हिफ़ाजत तो नहीं होती
ज़माने से छिपाकर ख़ुद को मिलने रोज मैं आऊं
मुहब्बत में मुझे इतनी भी फ़ुर्सत तो नहीं होती
यहाँ जिस्मों में दिलचस्पी दिखाना छोड़ दे रकमिश
किसी का जिस्म पा लेना मुहब्बत तो नहीं होती
-रकमिश सुल्तानपुरी
भदैयाँ, सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश