लुभाता है जो खलकत को मेरा उस प्यार को सजदा
रहे विश्वास पर काबिज़ वफ़ा, इकरार को सजदा
बिना तेरे सदा महफ़िल बड़ी बेनूर रहती है,
करे जो नूर महफ़िल में करूं दिलदार को सजदा
रहे प्रभात चेहरे पे ढले हर शाम जुल्फ़ों में,
छुपी है चांदनी जिसमे उसी रुखसार को सजदा
हुआ हूं खाक में बेशक किसी की याद में लेकिन,
मचलता है जो चाहत का है उस अंगार को सजदा
ज़रा भी डर नहीं मुझको कभी गैरों के पत्थरों से,
करे जो फूल से ज़ख्मी वो ही दिलदार को सजदा
हैं मिलते फूल कागज़ के महक भी अब क्षणिक लगती,
नज़ाकत भी जहां लुटती बड़े बाज़ार को सजदा
सहारा ढूंढ कर कोई सफ़र करता नहीं हरगिज़,
वक्त के साथ कदमों की सहज रफ़्तार को सजदा
-आरबी सोहल