रातों मन के
अंधेरों में
तस्वीरें चलती रहती हैं
शामों से ख़ामोशी ठहरी
रहती है मेरे घर
फ़ैली रहती है रातों भर
तन्हाई की चादर
सुबह सबेरे
मन को घेरे
परछायीं बढ़ती रहती है
रातों मन के अंधेरों में
सन्देहों की जाल बिछाती
जाती याद सलोनी
सोने देती मुझको कैसे
स्वप्नों की अनहोनी
चक्षु झीलों से
निकल निकल
दुख सरिता बहती रहती है
रातों मन के अंधेरों में
धूमिल आहट को धोखे में
रखतीं रातें काली
सुबह सजाये सूरज लाता
भावुकता की थाली
मन के बागों
में ख़ुशबू भर
पुरवाई बहती रहती है
रातों मन के अंधेरों में
-रकमिश सुल्तानपुरी
भदैयाँ, सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश