इन फागुनी हवाओं
में लिपटी तेरी यादों की
बासन्ती-खुशबू
छूकर मेरे लबों को
मेरी साँसों में उतर जाती है
गूँजती है मेरे कर्णों में
कोयल की मादक-पुकार बन,
तो कभी रसीली
आम्र-मंजरी सी इन
होंठों से लिपट जाती है
मचलती हैं, मेरी रगों में
महुवा मदिरा बन
दिल की हर धड़कन
तेरे ख्वाबों में
बस लड़खड़ाती है
रच देेती है मेरी सोच
मुझे तेरे ही आकार में,
मैं खुद को तुझसे दूर
इक पल को भी अब,
कहाँ महसूस कर पाती हूँ
पता भी है श्याम
तुम्हारी यादें, तुम्हारी बातें,
और ये फिज़ायें,
मुझे कितना तड़पाती है
जब इन फागुनी हवाओं
में लिपटी तेरी यादों की
बासन्ती-खुशबू
छूकर मेरे लबों को
मेरी साँसों में उतर जाती है
-किरण मिश्रा ‘स्वयंसिद्धा’
नोयडा