दफ्तरों से बन गए है
जिंदगी के पल
शाम से मिलते थके दिन
रात का आँचल
अब समय के साथ चलते
दौड़ते साये
चाँद-तारों सी तमन्ना
हाथ में लाये
नींद आँखों में नहीं है
प्रश्न का जंगल
अक्स अपना देखते, जब
रोज दरपन में
भार से काँधे झुके औ
रोष है मन में
बस नजर आती नहीं है
इक हँसी निश्छल
धूप बैठी हाशिये पर
ढल गया यौवन
भीड़ में कुछ ढूँढता है
यह प्रवासी मन
रात गहराने लगा है
आँख का काजल
-शशि पुरवार