कोशी का उदास रेत भरा किनारा
गुजरता दूर कोई
ग्रीष्म में
यहाँ सूरज भी रहा हारा
धान-गेहूँ, मूँग के खेत
आम, अमरूद, कटहल के पेड़ पर चढ़ी
फूलों से सजी अमरबेल
बेहद धीरे धीरे चलती थी
कभी यहाँ रेल
गूँजते रहे पार ज़ाती नाव पर
किस नाविक के गीत
अलाव के पास जाड़े में
रोज सुबह गिरती रही शीत
धूप में तब झाँकता मन का मीत
-राजीव कुमार झा