खाली खाली मन से रहते
तन है जैसे टूटा लस्तक
जर्जर होती अलमारी में
धूल फाँकती बैठी पुस्तक
समय छिछोरा कूटनीति की
कुंठित भाषा बोल रहा है
महापुरुषों की अमृत वाणी
रद्दी में तौल रहा है
अर्थहीन, कटु कोलाहल
सुन सुन घूम रहा है मस्तक
शरम–लाज आँखों का पानी
सूख गयी है आँख नदी
गिरगिट जैसा रंग बदलती
धुँआ उड़ाती नयी सदी
अर्धनग्न कपड़े को पहने
द्वार पश्चिमी गाये मुक्तक
खून पसीना छद्म चाँदनी
निगल रही है अर्थव्यवस्था
आदमखोर हुई मँहगाई
बोझ तले मरती हर इच्छा
यन्त्र चलित हो गयी जिंदगी
यदा कदा खुशियों की दस्तक
-शशि पुरवार