कोलाहल से भरे नगर में
यह पुलकित मन क्यों खूब अकेला
संग तुम्हारे सागर तट पर
अरुणिम संध्या की आहत वेला
फिर चली गयी हो
कहाँ छोड़कर देख रहे
सारे विस्मित पंछी
किस तरु के साये में
यह रात्रि पहर आयी
किसे पुकारता
आज यहाँ सूरज
सारे जन फिर सुबह मिलेंगे
रंगबिरंगे फूल खिलेंगे
नदी किनारे मेले में तुम आयी
खूब अकेले उसी बाग में
कोई चिड़िया गीत सुबह का गायी
हर्षित नयनों से
बहते निर्मल नीर किसी ने
आज यहाँ जब मुझे कहा
तुम सबसे अच्छे हो
कहाँ अकेले रहते
अपने मन की बातें
क्यों केवल मुझसे कहते
शेष सभी भी अपने ही हैं
अपने मन को देखो
-राजीव कुमार झा