मैं एक समतल ज़मीन की तरह थी,
जिस पर तुम्हारे
दर्द का साया
गम की बालू,
तल्खी की ईंट
और बेरूखी की सीमेंट ने,
आंसूओं का पानी मिला के
कविताओं की एक
विशाल इमारत खड़ी कर दी,
जिसमें कई सारे कमरे हैं
एक रोने का भी है
और एक यादों का
और एक कभी कभी
तुमसे छुप के,
तुम्हें सोचने का, भी है
एक कमरा भूलने का भी है
जहां मैं भूलने जाती हूँ
अक्सर तुम्हें मगर,
उसके बराबर वाला कमरा खाली है
जो भरा रहता है तुम्हारी खुशबू से,
बस तुम मैं और ये महकती खुशबू
यानि बन जाती है
फिर अहसास भरी
एक मुकम्मल दास्ताँ
-निधि भार्गव मानवी
गीता कालोनी ईस्ट दिल्ली