चल रही है ये हवा
या तुम मचल रही हो
बिजलियों की कौंध है
या तुम मन में गरज़ रही हो
चाहती हो बरसना मुझ पर
या मन ही मन बस डोल रही हो
घनी रात है कैसी
ऊपर से सर्द मौसम
बरस भी जाओ
यूँ अठखेलियों से न करो सितम
मैं भीग जाऊं अंतर्मन तक
रहो मेरे हिय में बस तुम
कैसे खेल खेलती हो
आधी रात में तृष्णा छेड़ती हो
तुम मनोज अनन्त हो
मैं नश्वर धरा निवासी
तुम हो प्रेम सकल शाश्वत
मैं साधारण प्रेम विवश पुरुष, पिपासी
माया सी काली जुल्फ़े तेरी
आतुर सी मेरी दोनों नैना है
कैसे कहूँ देर न कर
बरसों प्रेम में तेरी सारी रैना है
बस दो छीटें डाल मुझपर
मस्त हवा पर न उड़ जाना तुम
आधी काली रात मैं आयी हो
मेरी ही बस मेरी रह जाना तुम
वर्षा रूपी मेरी प्रियतमा
मेरी हो मेरी ही रहना तुम
-मनोज कुमार