मोहपाश- समीर शर्मा

अनुरक्ति बंध का मूल
यह विरह व्यथा का शूल
सद्बुद्धि का शील छिन
शरीरांग शिथिल कर जाता
अंतरतम अंशु पीकर यह
वश की माया फैलाता
भावों की अतिशयता से निर्गत
अश्रु प्रवाह का कारण
हृदय-स्पंद वेग क्षण-क्षण
तीक्ष्ण करने का साधन
करने को उद्यत मंद गति से
धीर धी: का ह्रास
मानवद्रोही होता प्रतीत
मानव का मोहपाश
मानवद्रोही होता प्रतीत
मानव का मोहपाश

करुण गान का मन्द्र राग
जीवन नद का अशिष्ट भाग
प्रज्ञा, विवेक सा साख काट
मति वृक्ष का करता यह क्षय
मूढ़ज्ञान जल से कर सिंचन
तृषाग्नि को देता प्रश्रय
संघर्ष शक्ति का नीड़ तोड़
आशाओं को करता दुर्बल
विषण्ण दशा का कालखंड
विस्तृत करता यह निश्छल
हिय का अतिक्रम कर, क्रम से
भंग करता यह श्वास
मानवद्रोही होता प्रतीत
मानव का मोहपाश
मानवद्रोही होता प्रतीत
मानव का मोहपाश

मानवता का प्रिय कलंक
सद्गगुण सरिता में शुष्क पंक
संयम की स्फीत धारा को
मति संगम से कर वंचित
मोह-मंत्र की सिद्धि से
सद्धर्म को करता दूषित
मनु आदर्शों की ज्योति बुझा
कर मृषा ज्ञान अधीन
नैतिक मूल्यों का खंडन कर
करता धीरज से हीन
स्थिर चित्त में आकुलता भर
करता समूल यह नाश
मानवद्रोही होता प्रतीत
मानव का मोहपाश
मानवद्रोही होता प्रतीत
मानव का मोहपाश

-समीर शर्मा