यहाँ क्षितिज से कितनी खुशियों की मोती को समेटकर
कितने उत्साह से उछाल लेती लहरें
फिर वापस अपने घर लौट जाती हैं
दोपहर के कोलाहल में दुनिया की सारी हलचल
यहाँ दूर फैले असीम जल में विलीन हो जाती है
ग्रीष्म में सारा नगर सागर के किनारे आकर
बेपरवाह हो जाता है
जाड़े की धूप में आदमी रेत पर लेट जाता है
आदमी की कितनी खतरनाक यात्राओं के बारे में सोचती लहरें
यहाँ रात-दिन उछाल लेती हैं
तूफान के बाद यहाँ खामोशी पसर जाती हैं
कितने दिनों तक यहाँ जहाज भी खड़े रहते हैं
कितनी बर्बादी के बारे में सोचते हुए
कभी कभी यहाँ आकाश रात में मेघ से घिर जाता है
सागर के खारे जल की सतह पर
शंख बजाता सूरज तट पर रोज सबको बुलाता है
-राजीव कुमार झा