यह शाम का सूरज
कितना दूर जाता
तालाब के पानी में झाँकता
पेड़ के पीछे अँधेरा घिर गया
नदी का घाट गुमसुम हो उठा
पानी की धार बहती जा रही
आधी रात में पुल के उस पार
रात भर एक नगर टिमटिमाता
सुबह में एक दिन
कोई यहाँ पर लौटकर आता
तुम धूप में दोपहर जब लौट आयी
रास्ते में किसने पुकारा
उस रोशनी को सदा जो जलती रही
रात में उसी रजतपथ में
बिखरता-सिमटता
मन का कहीं आकाश
शाम में कहाँ तुम बैठी मिलोगी
-राजीव कुमार झा